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आदिधार्मिक कहलाता है । संप्रदाय-धर्म की दृष्टि से भले ही उसका जन्म जिस-किसी भी धर्म में संप्रदाय में हुआ हो वह जीव वहाँ रहकर भी अपने अपने धर्म में भी धर्म की शरुआत करता है। जिसमें सर्वप्रथम पापरुचि कम होती है। देव-गुरु-धर्म के प्रति सद्भाव समभाव आदि उत्पन्न होते हैं। मन शान्त बनता है । कषायों की मन्दता जागृत होती है। हिन्दु-बौद्धादि धर्मों में जन्मा हुआ भी अपने-अपने धर्मक्षेत्र में रहकर भी पापप्रवृत्ति से बचकर रहने की सदा कोशिश करता है । जागृति के भाव में जीता है। सावधानी से वर्तता है । वह उस स्थिति में अपुनर्बंधक बनता है । सर्वज्ञ प्रभु के शासन में भी और बाहरी अन्य धर्मों में भी आदिधार्मिक समान रूप से होता है । वैसे भी मिथ्यात्व तो अभी भी मौजूद है । परन्तु अत्यन्त मन्द है । इतना उग्र नहीं है कि अब:पुनः पहले की तरह उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बंधाए। जी नहीं। कषायों की तीव्रता-उत्कटता मिलने पर ही मिथ्यात्व की स्थिति अति उत्कट बनती है । अन्यथा यदि कषाय शान्त हो जाय तो मिथ्यात्व भी मन्द हो जाता है।
"ललित विस्तरा" ग्रन्थ में पू. हरिभद्रसूरि म. विशेष रूप से बताते हैं कि... अपुनर्बंधक को चाहिए कि वह सर्वप्रथम पापमित्रों की सोबत छोड दें और कल्याणमित्रों की संगत करें। औचित्य व्यवहार का उल्लंघन न करें। लोकमार्ग का अनुसरण करें। माता-पिता-वडीलजन-गुरुजन आदि का पूरा सन्मान करें, उनकी आज्ञा का पालन करें, ज्ञानादि धर्म की प्रवृत्ति करें । तीर्थंकर परमात्मा की विधिवत् दर्शन-पूजा-भक्ति करें। गुरुशुश्रूषा धर्मश्रवण नित्य करें। मुत्यु को दृष्टि समक्ष रखकर सुयोग्य वर्तन-व्यवहार रखें। मन्त्र-जापादि करके वृत्तियों को शान्त रखें। कषायों में उत्तेजना न लाए। आवेश-आवेग से बचकर रहें । सदाचार का पालन करें । महापुरुषों के मार्ग पर चलें। इत्यादि अनेक प्रकार की शुभ प्रवृत्ति करते रहने से चरमावर्त के प्रारम्भ में ही जो जीव आदिधार्मिक-अपुनर्बंधक बना है उसके लिए विकास का मार्ग खुल जाता है।
मार्गानुसारी जीवन के ३५ गुण
मार्ग का अनुसरण-अनुकरण करना इसे मार्गानुसारी कहते हैं। कौनसा मार्ग? कैसा मार्ग? संसार के लोक व्यवहार में भी लोक अपने से आगे बढे हुए का अनुसरण करते हैं। उसके बताए हुए अनुभव के आधार पर चलते हैं। वैसे ही यहाँ पर आध्यत्मिक विकास का मार्ग है । वह मोक्ष का मार्ग है।
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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