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क्षुद्रता, लोभ, दीनता, मत्सर, भय, शठता अज्ञान आदि ये भवाभिनन्दिता के प्रमुख लक्षण हैं । अर्थात् भवाभिनंदिता रहने पर ये लक्षण प्रगट रूप से स्पष्ट दिखाई देते हैं । इन लक्षणों को देखकर यह जीव भवाभिनन्दी-संसार का रागी है यह स्पष्ट समझा जा सकता है, और इस भवाभिनन्दिता में से जीव जैसे ही बाहर निकलकर - अपुनर्बंधक बनता है तब ये क्षुद्रतादि सभी दूषण दूर हो जाते हैं और इनकी जगह पर गुण स्थान ले लेते हैं । फिर औदार्य, दाक्षिण्य, पाप - जुगुप्सा, लोभ की न्यूनता, भय की न्यूनता, सरलता, कुछ ज्ञानदशा आदि गुण जागृत होते हैं। तीव्र राग-द्वेष की वृत्ति से जो पाप न करें उसे अपुनर्बंधक कहते हैं।
आदिधार्मिक - अपुनबंधक -
पावं न तिव्वभावा, कुणइ ण बहु मन्नइ भवं घोरं । उचिअट्ठिइ च सेवइ सव्वत्यवि अपुणबंधोत्ति ॥
पंचा. ३/४ ॥
- पंचाशक प्रकरण में कहते हैं कि अपुनर्बंधक जीव के अति उत्कट मिथ्यात्व के परिणामों का क्षयोपशम हो जाने से उस प्रकार की कर्म की उत्कृष्ट बंधस्थिति न बांधने के कारण हिंसादि पाप कर्मों को करने के तीव्र परिणाम - अति संक्लिष्ट परिणाम न होने के कारण आत्मा निर्मल- शुद्ध होती है । मोहनीय कर्म के उदय के कारण सामान्य पापप्रवृत्ति तो रहती ही है । दुःखों की खान समान भयंकर दुःखदायी संसार की रुचि प्राप्ति की तमन्ना परिभ्रमण की तीव्रेच्छा नहीं रहती है। स्वपर धर्म, देव, गुरुओं, माता, पिता, भाई, बहन आदि गुरुजनों के प्रति उचित आदर सन्मान की भावनावाला बनकर वह रहता है । शिष्टाचार का पालन करनेवाला रहता है । जैसे मोर के अण्डे को रंगों से रंगने की आवश्यकता ही नहीं है, वे स्वाभाविक रूप से ही तथाप्रकार के वर्णादिवाले बनते ही हैं, वैसे ही ऐसे अपुनर्बंधक जीवों को सिखाने - समझाने की आवश्यकता नहीं पडती है । सहज-स्वाभाविक रूप से ही उनमें गुण प्रकट होते हैं । मोक्षमार्ग का अनुसरण करवानेवाला मार्गानुसारीपना उसमें प्रकट होता है । इसके अनुरूप वह जीवन बनाता है ।
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स आदिधार्मिकश्चित्रस्तत्तत्तन्त्रानुसारतः । इह तु, स्वागमापेक्षं, लक्षणं परिगृह्यते ॥
धर्मसंग्रह ग्रन्थकर्ता तथा योगबिन्दु में भी अपुनर्बंधक जीव को आदिधार्मिक नाम दिया है । चरमावर्तकाल प्राप्त करके जीव ने सर्वप्रथम ही धर्म का प्रारंभ किया है । अतः
आध्यात्मिक विकास यात्रा