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बंधक जीव ३) अपुनर्बंधक जीव । उग्र मिथ्यात्व की तीव्रता के कारण ७० कोडा कोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बांधनेवाला जीव अब संसार में सिर्फ दो ही बार ऐसी उत्कृष्ट स्थिति बांधनेवाला हो उस जीव को द्विबंधक जीव कहा है। ऐसा जीव अब बार बार ७० कोडा कोडी सा. की उत्कृष्ट स्थिती का बंध नहीं करेगा। सिर्फ दो बार ही करेगा। इससे भी आगे बढकर जो जीव कुछ जागृति लाकर समझता है वह जीव दो बार भी उत्कृष्ट स्थिति का बंध न करता हआ सिर्फ एक बार ही बांधे उसे ज्ञानियोंने सकृत् बंधक जीव कहा है । यह केवलज्ञानियों की दृष्टि से संभव है । एक बार भी ऐसी ७० कोडा कोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति के मोहनीय कर्म को बांध लेनेवाला जीव भी इस कर्म की स्थिति को समझ जाय, जागृत हो जाय....कुछ सावधान बनकर आगे बढता हुआ अपने मिथ्यात्व को मन्द करता हुआ अब एक बार भी मिथ्यात्व की उग्र तीव्र स्थिति न बनाए,
और वैसी उत्कृष्ट स्थिति न बांधे ऐसे जीव को ज्ञानियों ने अपुनर्बंधक जीव कहा है । अब इसका मिथ्यात्व कम-मन्द हो चुका है। अब इतनी तीव्रता नहीं रही है। अतः मन्द मिथ्यात्वी जीव अपनी तीव्रता-उग्रता घटाकर थोडा शांत होकर बैठता है। यद्यपि मिथ्यात्व की उपस्थिति जरूर है और उसके कारण कर्म बंध भी जरूर होगा, परन्तु... अब उत्कृष्ट स्थिति का बंध नहीं होगा। यह केवलज्ञानियों के ज्ञान योग से देखी गई जीव की विकास दशा है। इस तरह जीव अपनी विकास कक्षा में से पसार हो रहा है। ऐसे जीव की अनादिकालीन निबिड राग-द्वेष में मन्दता आने के कारण, सहजभावमल हास होने के कारण परिणामों में मिथ्यात्व की मन्दता का भी अंश तक बढता जाता है । जैसे कोठार में पड़े धान्य उगते नहीं है, क्योंकि उनको किसी भी प्रकार का सहयोगी कारण-निमित्त कारण प्राप्त ही नहीं होता है। हवा-पानी-प्रकाश-जमीन-खाद आदि सहयोगी कारण प्राप्त होंगे तभी जाकर वह बीज पनपता है। इसी तरह जीव जो मिथ्यात्वियों-पापकर्मियों के संसर्ग में रहता है वह जीव सांसर्गिक दोषों का भोग बन कर वैसा बनता है । अतः संसार में अपना विकास साधने की इच्छाबाले जीवों को सर्वप्रथम ऐसी सावधानी रखनी चाहिए कि....किसी भी परिस्थिति में अधर्मियों, मिथ्यात्वियों पापकर्मियों, हिंसकों आदि अपना अहित अधःपतन की संभावना जिससे लगे ऐसे लोगों के संसर्ग में रहना भी नहीं चाहिए, और ऐसों के संबंध में संपर्क में संसर्ग में आना भी नहीं चाहिए । आखिर संसार में रहते हैं शादी-सगाई के प्रसंगपर योग्यात्माओं का निमित्त ढंढना चाहिए। नौकरी-व्यापार-भागीदारी-मकानमालिक-आदि संसार के सभी प्रसंगों-निमित्तों पर योग्य विचार करके उचितता का पूरा ख्याल रखकर ही ऐसा संसर्ग रखना करना चाहिए। जैसे धान्य हवा-पानी–प्रकाश-जमीन-खाद आदि सबका सुंदर योग प्राप्त होने पर अंकुरित होकर पूर्ण वृक्ष बनता है । उसी तरह लोगों के अच्छे
आध्यात्मिक विकास यात्रा