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आत्माओं पर भी द्वेष जगे... दुर्भाव प्रगटे । ३) सर्वत्र जो भी कोई उचित कर्तव्य-कार्य हो वहाँ भी वे जीव भेद-भाव की दृष्टि से विपरीत आचरण करते हो। ___छोटे बच्चे जैसे गोल-गोल घूमते हैं उस समय सब कुछ विपरीत दिशा में घूमता हुआ दिखाई देता है । और घूम लेने के पश्चात भी उसकी भ्रमणा-भ्रान्ति बनी हुई रहती है। ठीक वैसे ही उपादेय तत्त्व में हेय = त्याज्य बुद्धि और हेय = त्याज्य में उपादेय की बुद्धि ऐसी विपरीत विचारधारा वह जीव रखता है।
लेकिन चरमावर्त में प्रवेश कर चुकनेवाले जीव का लक्ष्य सर्वथा बदल जाता है। अतः उसके लक्षण अचरमावर्ती जीव के लक्षण से सर्वथा विपरीत ही होंगे । १) किसी भी दीन-दुःखी को देखकर अपार करुणा दिल में दया के रूप में उभर आए । २) गुणों से परिपूर्ण गुणवान महात्मा पर द्वेष या दुर्भाव सर्वथा न जगे । सद्भाव जगे। ३) और उचित कर्तव्य कार्य के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना उचित आचरण ही करने की वृत्ति बनती है। चरमावर्त में प्रवेश हो जाने के पश्चात हेय-हेयरूप लगता है। और उपादेय उपादेयरूप लगता है । हिंसादि पाप हेय और अहिंसा क्षमादि उपादेयरूप लगने लगते हैं। मिथ्यात्व की मन्दता-तीव्रता___अनादि-अनन्तकालीन अचरमावर्त काल में सहजभावमलयुक्त ऐसा मिथ्यात्वी जीव संयोगवशात्-निमित्त-योग ऊँचे अच्छे मिलने के कारण अपने मिथ्यात्व की जो विपरीत वृत्ति-मति पडी.हुई है जिसके कारण अतस्त्र में तत्त्व बुद्धि, और तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि है । इसमें कुछ मन्दता आती है। ये परिणाम कुछ मन्द होते हैं । लेकिन चलती हुई गाडी में जैसे मती में तीव्रता आती है, कुछ देर तीव्र-तेज गति से चलती है और फिर कुछ मन्दता आजाती है । फिर तीव्र गति बनती है । फिर मन्दता आती है। इस तरह अचरमावर्ती जीव अपनी मिथ्यात्व की वृत्ति में भी ऐसी ही स्थिति अनुभवता है । कभी कभी मिथ्यात्व की वृत्ति इतनी उग्र बन जाती है कि वह पुनः७० कोडी कोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति का कर्म बांध लेता है, फिर मिथ्यात्व मन्द पडता है, फिर तीव्रता आती है और उत्कृष्ट स्थिति बांध लेता है । ऐसी प्रक्रिया चलती रहती है।
चरमावर्त के काल में प्रवेश करनेवाले जीव की तीव्र मिथ्यात्व की स्थिति सर्वथा कम हो जाय ऐसे ३ प्रकार के जीवों का स्वरूप बताया है । १) द्विबंधक जीव २) सकृत्
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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