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काल बीतता था । सुख की आकांक्षा सुख प्राप्ति की इच्छा होने के बावजूद भी अपनी करणी के फलस्वरूप दुःख ही दुःख सामने आता था । पाप की प्रवृत्ति करने से भी सुख मिलता है ऐसी भी उसकी विपरीत धारणा पडी हुई थी । अतः पाप की प्रवृत्ति करने में मजा आती है ऐसी उसकी धारणा बनी हुई है। जो सर्वथा विपरीत है। सही सत्य तो यह है कि- “दुःखं पापात् - सुखं धर्मात् ” पाप की प्रवृत्ति करने से दुःख ही दुःख प्राप्त होता है और पुण्यरूप धर्म की शुभ प्रवृत्ति करने से सुख प्राप्त होता है। यह सदाकालीन त्रैकालिक सत्य है, परन्तु इसे भी मिथ्यात्व से ग्रस्त मिथ्यात्वी जीव विपरीत वृत्ति के कारण उल्टा ही मानता है— नहीं ... नहीं... पाप करने से भी सुख मिलता है । धर्म निरर्थक
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जब तक जीव अन्तिम चरम पुद्गल परावर्त में नहीं प्रवेशते हैं तब तक वे अचरमावर्त में गिने जाते हैं। जिनको मोक्ष पाने में सिर्फ १ पुद्गल परावर्त काल ही शेष रहा हो वे ही जीव चरमावर्त में प्रवेश कर सकते हैं। अभव्य और जातिभव्य की कक्षा के जीव तो कभी भी मोक्ष पानेवाले ही नहीं हैं । अतः उनके लिए चरमावर्त में प्रवेश का प्रश्न ही खडा नहीं होता है । एक मात्र भव्य जीव ही और वह भी १ पुद्गल परावर्त काल मुक्ति के लिए शेष बचा हो वही जीव चरमावर्तकाल में प्रवेश करता है। जैसे बद्धकोष्ठताग्रस्त उदर में मलावरोध की तीव्रता रहने से मधुर पक्वान्न भी अरुचिकर लगते हैं ठीक वैसे ही अचरमावर्ती मिथ्यात्वी जीव को मिथ्यात्व की तीव्रता के कारण मोक्षाभिलाषा या मोक्ष प्राप्ति की रुचि ही नहीं जगती है। और वहाँ वह ऐसा कोई प्रबल पुरुषार्थ भी नहीं करता है, या वहाँ कोई ऐसा पुण्योदय भी नहीं बढता है जिसके कारण भी भवी जीव चरमावर्त काल में आ सके । बस एक मात्र तथाप्रकार का भव्यत्व काम करता है जिसके कारण भव्यात्मा चरमावर्त में प्रवेश करता है ।
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सहजभावमल - मल शब्द आध्यात्मिक अर्थ में आत्मा पर लगे मलीन कर्म के अर्थ में प्रयुक्त है । सहजरूप से अनादि काल से आत्मा पर पडे हुए ... राग-द्वेष के निबिड परिणाम ही बंडे खराब होते हैं । सहज स्वाभाविक रूप से आत्मा पर लगे हुए कर्म और उनके कारण बनी हुई वैसी प्रवृत्ति । यह अचरमावर्त काल में चलता ही रहा । ऐसे अचरमावर्ती—सहजभावमलवाले जीव को पहचानने के लिए पू. हरिभद्रसूरि महाराजा ने योगदृष्टि समुच्चय ग्रन्थ में तीन लक्षण बताए हैं जिनसे ऐसे जीवों को पहचाना जा सकता है । १) दुःखी जीवों को देखकर भी दया का अंश भी न जगे । २) गुणों से परिपूर्ण महान
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आध्यात्मिक विकास यात्रा