________________
इन ८ भेदों के पुद्गल परावर्त कालजीव ने अनन्त बिता दिये हैं । ये द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव भेद में मुख्य ४ प्रकार के हैं । बादर तो सूक्ष्म को समझने की भूमिका आधाररूप है। संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए जीव ने इतने अनन्त पुद्गल परावर्त काल बिता दिये हैं कि जिसकी गणना करना भी संभव नहीं है । जीवविचार में
एवमणोरपारे संसारे सायरंमि भीमंमि।
पत्तो-अणंतखुत्तो, जीवेहि अपत्त-धम्मेहिं ।। जिसका कभी पार न पा सके ऐसे 'अणोरपारे' भयंकर संसाररूपी समुद्र में जीव अनन्तबार गिरा है । पतन हुआ है । क्यों गिरा? क्यों पतन हुआ? इसका एक ही स्पष्ट कारण बताते हुए कहते हैं कि- धर्म प्राप्त न करने के कारण। धर्म की प्रथम भूमिका श्रद्धा-सम्यग् दर्शन की जब तक प्राप्ति ही नहीं हुई तब तक मिथ्यात्व के कारण जीवों को भटकना ही पडा । अनन्तकाल तक भटकना पडा । परिभ्रमण की इस स्थिति में मिथ्यात्व का तथा रागद्वेष का नशा इतना भयंकर था कि... उस नशे की धुन में मस्ती में जीव को कभी सम्यग् धर्म का ख्याल ही नहीं आया । इसी कारण परिभ्रमण अनन्त भवों के रूप में चलता ही रहा।
आवर्त से अर्थ है जिसके दो किनारे मिलते ही न हो... इस तरह गोल-गोल घूमते ही रहना । जैसे तैली का बैल घाणी पर घमता ही रहता है। उस बैल के सामने कोई लक्ष्य नहीं है। कहाँ तक घूमना? कितना घूमना है? इत्यादि किसी भी प्रकार का कोई लक्ष्य नहीं है। सर्वथा लक्ष्यविहीन जीवन है । ठीक ऐसा ही मिथ्यात्वी जीव है । अनन्त पुद्गल परावर्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। लेकिन सर्वथा लक्ष्यविहीन जीवन है। यही अचरमावर्त का काल था। इसमें जीव भवाभिनंदी-पुद्गलानंदी बना रहा । पुद्गल का रागी, पौगलिक पदार्थों की लालसा बनी रही। दैहिक सांसारिक सुखों की प्राप्ति तथा तदनुरूप साधन-सामग्री, सुखभोगों के योग्य पदार्थों की प्राप्ति की मनोकामना बनी रही। परन्तु वे दरिंद्रों के मनोरथों की तरह मन में ही समा जाती थी, क्योंकि मिथ्यात्व के कारण विपरीत वृत्ति पड़ी हुई थी। मिथ्यात्व सब प्रकार के पापों को तीव्रता के साथ कराता था जिससे भारी कर्मों का बंधं होता था और उनके कारण भारी दुःख भुगतना पडता था । तथा वैसे दुःखों को भुगतने के लिए.. उसे दुःख की दुर्गतियों में जाना पडता था। नरकगति में बडे-बडे लम्बे काल के आयुष्य प्राप्त होते हैं । लम्बे काल तक दुःख भुगतने में उसका
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
४६३