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________________ साधक बिल्कुल अप्रमत्त ही बन गया है, आत्मसाक्षीभाव में जी रहा है, आत्मगुणों की अनुभूतिं के साथ जी रहा है, जागृति में सावधान बनकर जी रहा है, इसलिए अब सामायिक अन्तर आत्मा की गहराई में समभाव की गुणात्म होगी । " आगमशास्त्र यहाँ स्पष्ट कहते ही हैं कि "आया सामाइए,” आया सामाइ अस्स अट्ठे” । गुण- गुणी का अभेद संबंध होने के कारण आत्मा ही सामायिक है । ऐसा निश्चय नय की दृष्टि से कहा जाता है । गुण में गुणी का आरोपण, या गुणी में गुण के आरोपण करते हुए एकरूपावस्था का ऐसा निश्चयात्मक व्यवहार होता है । अब सतत ध्यान की शुद्धि में रहा हुआ योगी - ध्यानी आत्मसाक्षीभाव के साथ ही रंममाण रहता है । समता गुण है, और इसमें स्थिर समत्वी आत्मा सामायिक भाव की स्थिरतावाली कही जा सकती है 1 1 इस ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान पर आए हुए अप्रमत्त योगी का अन्तःकरण संकल्प-विकल्पों की परंपरा से रहित हो जाता है । उसके चारित्र गुण में किसी भी प्रकार के अतिचार लगने की कोई संभावना ही नहीं रहती है । अतः बाह्य रूप से प्रतिक्रमण करने की अपेक्षा आभ्यन्तर कक्षा में प्रतिक्रमण की ही कक्षा में सदा रहता है । अतः वह भावतीर्थ की अवगाहना करने से उत्तरोत्तर परम विशुद्धि को प्राप्त होता है । भावतीर्थ के विषय में शास्त्र में फरमाया है कि I दाहोपशमः तृष्णाछेदनं मलप्रवाहणं चैव । त्रिभिरर्थैनिर्युक्तं तस्मात्तद्भावतस्तीर्थम् ॥ १ ॥ क्रोधे तु निगृहीते दाहस्योपशमनं भवति तीर्थम् । तु निगृहीतृष्णाया छेदनं जानी ही ॥ २ ॥ अष्टविधं कर्मरज: बहुकैरपि भवैः संचितं यस्मात् । तप: संयमेन क्षालयति, तस्मात्तद्भावतस्तीर्थम् ॥ ३ ॥ द्रव्यरूप और भावरूप दोनों अवस्थाएं है बाह्यरूप से शरीर में दाह होता है, मलप्रवहण होता है। लेकिन उसके लिए भी यदि आन्तरिक कषायादि का शमन हो जाय तो उससे दाहादि का भी शर्मन हो जाय । १) दाह का उपशम, २) तृष्णा का छेदन, ३) और मलप्रवहण ये तीनों तीन भाव अर्थ से जुडे हुए हैं। जैसे क्रोध की निवृत्ति, या निग्रह हो जाने से दाह का भी उपशमन हो जाता है । और लोभ का निग्रह हो जाने से तृष्णा का छेदन भी होता है । तृष्णा का अन्त आता है । इसी तरह जीव ने अनेकों जन्मों में बांधे हुए आठों I अप्रमत्तभावपूर्वक " ध्यानसाधना” ९६७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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