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________________ अप्रमत्त के लिए प्रतिक्रमण नहीं इत्येतस्मिन् गुणस्थाने नो सन्त्यावश्यकानि षट्। सततध्यानसद्योगाच्छुद्धि स्वाभाविकी यतः ।। ३६ ॥ जब साधक ७ वे गुणस्थान पर आरूढ होकर अप्रमत्त बन जाय फिर उसके लिए प्रतिदिन के दैनिक रात्रिक प्रतिक्रमण करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। क्योंकि प्रमादभाव के कारण जिन-जिन दोषों की संभावना रहती थी अब वे कारण ही नहीं हैं। अतः उन कारणों के सेवन के अभाव में वैसा दोष ही नहीं लगता है तो फिर खपाने के लिए कोई आवश्यकता रहती ही नहीं है। यहाँ ७ वे गुणस्थान पर कोई माया-कपट-दंभादि सेवन करने का तो कोई प्रश्न ही खडा नहीं होता है । क्योंकि श्लोक में साफ शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा है कि “सतत ध्यानसद्योगाच्छुद्धिःसतत-निरंतर शुभध्यान के शुभयोग से स्वाभाविक रूप में शुद्धि काफी अच्छी एवं ऊँची कक्षा की रहती है। इसलिए दोष कुछ भी लगने की संभावना ही नहीं रहती है। अतः आवश्यक क्रिया करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है । इन सामायिक आदि की क्रिया जो की जाती है वह सामायिक का क्रियात्मक स्वरूप है, तथा इन सामायिकादि का गुणात्मक स्वरूप भी है । समता गुण है । सामायिक उसकी प्राप्ति के लिए क्रिया रूप है। अतः बार-बार की क्रिया करते रहने से उस गुण की प्राप्ति विशेषरूप से की जा सकती है। मुख्य साध्य तो गुण की प्राप्ति का ही है। उस साध्य को साधने के लिए तदनुरूप क्रिया करना उसका व्यवहारिक स्वरूप है । समता आत्मा का गुण है तो उसी गुण की क्रिया सामायिक है । छठे गुणस्थान तक आचारात्मक क्रिया करने का महत्व था लेकिन अब सातवे गुणस्थान से क्रिया गौण है और गुणस्थान प्राधान्य है । गुण भी आत्मिक कक्षा के सर्वोत्कृष्ट कक्षा के हैं फिर तो कोई सवाल ही नहीं। समता-नम्रता (विनय), क्षमा, सरलता, संतोषादि आत्मा के ही गुण हैं और आत्मा यदि उन गुणों में मग्न-लीन रहकर वैसी तदाकार ही बनकर रहे तो की जानेवाली सामायिक की क्रिया अर्थात् बाह्य व्यवहारात्मक क्रियात्मक सामायिक की अपेक्षा गुणात्मक समभाव की आन्तरिक स्थिरता ऊँची सामायिक गिनी जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि बाह्य क्रियात्मक सामायिक नहीं करनी ऐसा नहीं है । बाह्य क्रियात्मक सामायिक तो हजारों बार करनी ही है । उपयोग भाव में जितने ज्यादा स्थिर रहेंगे उतनी ज्यादा मात्रा में निर्जरा होगी । यदि मानों कि निर्जरा नहीं भी हुई तो भी संवर का लाभ तो पूरा मिलेगा। इसमें तो संदेह नहीं है । लेकिन छठे प्रमत्त गुणस्थान तक बाह्य क्रियात्मक सामायिक का महत्व था। अब ७ वे गुणस्थान से ९६६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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