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अब छठे गुणस्थान से आगे अन्तिम सोपान रूप १४ वे गुणस्थान पर्यन्त बाह्यलिंग तो साधु का ही रहेगा। उसमें तो कोई परिवर्तन नहीं होगा। क्योंकि ६ से १४ तक के सभी गुणस्थान साधु अवस्था के ही हैं । अतः कोई ज्यादा परिवर्तन की गुंजाईश नहीं है। लेकिन आभ्यन्तर कक्षा में आसमान जमीन का परिवर्तन होता ही जाता है । ऐसी अन्तर कक्षा के परिवर्तन को सूचित करनेवाली बाह्य परिवर्तन की कोई निशानी नहीं है । जी हाँ ! अब पुनः बाह्य परिवर्तन मात्र १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान पर पहुँचने के बाद होगा। लेकिन वह भी सब में नहीं । जो जो तीर्थंकर बनेंगे उनके लिए अष्टप्रातिहार्य, समवसरण तथा अनेक अतिशयों की रचनाएं होगी। ये सभी प्रधानरूप से दैवी कृत रहेगी। देवताओं द्वारा बनाए हुए. अतिशय अष्टप्रातिहार्यादि, समवसरणादि परमात्मा की पहचान के लिए बाह्य साधन बन जाएंगे। लेकिन आभ्यन्तर गुणात्मक कक्षा तो वीतरागता और सर्वज्ञतादि की सब में समान रूप से एक जैसी ही रहेगी। १३ वे गुणस्थान पर चाहे जो भी आए, जितने भी आए उन सब की उस गुणस्थान के अनुरूप वीतरागता सर्वज्ञतादि की स्थिति एक समान-एक जैसी ही रहेगी। चाहे वह तीर्थंकर बने या चाहे वह गणधर बने, या फिर चाहे वह सामान्य साधु ही क्यों न हो? आभ्यन्तर गुणात्मक कक्षा सर्वथा समानरूप ही . रहेंगी । बाह्य परिवर्तन में तो तीर्थंकर नाम कर्मादि तो मात्र पुण्यप्रकृति है। तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्तम कक्षा की पुण्य प्रकृति है । तीर्थकर नामकर्म की सर्वोत्तम कक्षा की पुण्य प्रकृति के उदय से वैसी श्रेष्ठतम कक्षा प्राप्त होती है। परन्तु वीतरागता-सर्वज्ञतादि तो पुण्योदयजन्य नहीं है, ये तो सर्वथा क्षायिक भाव की है । अतःगुणात्मक होने से समानरूप ही रहेगी। इस तरह १४ ही गुणस्थान पर बाह्यचिन्हादि किसके कैसे हैं वह यहाँ दर्शाया है। जिससे बाह्य स्वरूप से भी पहचाना जा सके । १३ वे गुणस्थान पर पहुँचे तीर्थंकर की बाह्य पहचान... समवसरण की दैवी रचना, अष्टप्रातिहार्यादि, अतिशयादि हैं । अतः इनके कारण वे तीर्थंकर हैं और १३ गुणस्थान पर आरूढ हैं यह भी पहचान बाहरूप से स्पष्ट हो सकती है । ४ थे गुणस्थान की वैसी कोई बाह्य पहचान नहीं है । इसी तरह ७,८, ९,१०,११ और १२ वे गुणस्थान की भी कोई बाह्य पहचान विशेष प्रकार की नहीं बनती है। ये छटे गुणस्थान प्रधानरूप से आभ्यन्तर कक्षा के हैं । बाह्य रूप से तो छठे गुणस्थान पर साधु बन ही गया है । अतः छठे गुणस्थान से लेकर आगे १२ वे तक बाह्यरूप से तो वैसा साधु ही दिखाई देगा। बिल्कुल साधु जीवन की आचार संहिता ही रहेगी। हाँ, अन्तर जरूर बढेगा। आचारसंहिता में आगे बढ़ने पर कुछ कमी-बेसी जरूर आएगी । जैसा कि अप्रमत्त बनने के बाद अब प्रतिक्रमणादि की आवश्यकता नहीं रहेगी । शास्त्रकार स्पष्ट करते हैं
अप्रमत्तभावपूर्वक “ध्यानसाधना"
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