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वेशभूषा में जिन मंदिर जाता हुआ, ललाट पर तिलक प्रभु आज्ञा का सूचक बना हुआ हो, या माला हाथ में ग्रहण करता हुआ प्रभु नामस्मरणं, जपादि करता हो, या तीर्थयात्रा करने जाता हुआ, या स्वाध्याय तत्त्व विचारणा–पठन-पाठ अभ्यासादि कराता-करता हुआ तो समझिए वह ४ थे गुणस्थान का मालिक है और यह उसका बाह्य स्वरूप है जो दुनिया की पापप्रवृत्ति से विरक्त है। . .
* ५ वे गुणस्थान पर आरूढ आत्मा व्रत, विरति और पच्चक्खाणधारी बनती है। वह पौषधशाला या उपाश्रय में सामायिक, प्रतिक्रमण या पौषधादि करता हुआ, तथा तत्सूचक चरवला-मुहपत्ति-कटासणादि जीवरक्षासूचक उपकरण आदि को ग्रहण कर बैठा हो। उपयोग करते हुए अविरति के त्यागपूर्वक व्रत-विरति को धारण करके आराधना करता हो ऐसा साधक ५ वे गुणस्थान पर आरूढ समझा जाता है । बाह्य रूप से तथा आभ्यन्तर रूप दोनों प्रकार से तथा व्यवहार रूप से तथा निश्चय नय से भी देशविरति का ५ वाँ गुणस्थान उसे स्पर्शता है।
इसी तरह एक सोपान और आगे चढा हुआ साधु भी बाह्य रूप से द्रव्यलिंग से भी पहचाना जाता है । तथा आभ्यन्तर कक्षासे भी । व्यवहाररूपसे बाहरी पहचान गृहस्थाश्रमी संसारी स्वरूप से सर्वथा भिन्न, सिलाई किये हुए वस्त्र न पहनकर, रंगबिरंगी भी न पहनकर कोई फेशन के शो वाले भडकादि कपडे भी न पहनकर सीधे सादे सफेद वस्त्रधारी, साधु की वेशभूषा का धारक अपने धर्मचिन्हरूप रजोहरण-(ओघा) मुंहपत्तीं तथा दण्ड एवं काष्ठपात्रादि धारक साधु व्यवहार नय से बाह्य स्वरूप से पहचाना जाता है । यद्यपि भिन्न भिन्न संप्रदाय अभिप्रेत भिन्न प्रकार की वेशभूषा आदि का धारक हो सकता है । बाह्य स्वरूप है अतः उसमें सभी अपनी-अपनी इच्छानुसार परिवर्तन थोडा-ज्यादा कर सकते हैं। कोई सर्वथा वेश न रखते हुए नग्न दिगंबर भी रह सकते हैं । कमण्डलधारी, कौपीन धारी भी साधु कहला सकते हैं।
__ व्यवहारात्मक बाह्य परिवर्तन जो पहचान का लिंगमात्र है वह भिन्न भिन्न प्रकार का हो सकता है। लेकिन आभ्यन्तर कक्षा में-गुणात्मक स्थिति आनी ही चाहिए। अतः श्रमणावस्था ग्रहण करनेवाले साधु में संसार की विरक्ति, वैराग्य, त्याग, पापनिवृत्ति, पंचमहाव्रत धारकता, ब्रह्मचर्यशुद्धि, अपरिग्रहता, तथा रात्रिभोजन त्याग, पंचेन्द्रिय संवरादि रूप सूचक २७ गुणों की धारकता अनिवार्य है । केशलुंचनादि भी व्यवहारिक पहचान के साधन बन जाएंगे, लेकिन गुणात्मक स्थिति आभ्यन्तर कक्षा की होगी।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा