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________________ है? जैसे एक छोटे बच्चे को उसकी माँ दिन में दस बार यदि अलग अलग प्रकार की वेषभूषा पहना दे उससे क्या वह वैसा हो थोडी ही जाता है ? क्या डाक्टर के साधन लेकर वह किसी को तपासने जैसा नाटक मात्र विनोद या हास्य के लिए करे तो इतने मात्र से वह डाक्टर थोडा ही बन जाता है ? ठीक इसी तरह मात्र द्रव्यरूप से या बाह्यरूप से साधु का वेष मात्र ग्रहण कर ले और आन्तरिक त्यागादि की कोई भावना, गुणात्मक कक्षा न बने, या आभ्यन्तर त्यागादि कुछ भी न आए तो इतने मात्र से वह साधु बन नहीं सकता है। द्रव्यरूप से वेषमात्रधारी वास्तव में छठे गुणस्थान का स्वामी नहीं कहला सकता है। निश्चयनय की अपेक्षा से तो नहीं, लेकिन हाँ, व्यवहारनय साधु कहकर व्यवहार जरूर कर सकता है। परन्तु व्यवहारनय उसका गुणस्थान नहीं बदल सकता । संभव भी नहीं है। हो सकता है कि निश्चयनय से वह मिथ्यात्वी भी हो और व्यवहारनय से वह साधु भी हो। जैसे मूलरूप से अभवी जीव हो और वह व्यवहारनय से दीक्षा ग्रहणकर साधु बन भी जाय तो इतने मात्र से क्या उसका गुणस्थान परिवर्तन हो जाएगा? जी नहीं । अभवी जीव अनादि-अनन्तकाल तक महामिथ्यात्वी ही रहता है । अतः अनन्तकाल तक उसका पहला मिथ्यात्व का ही गुणस्थान रहेगा। परिवर्तन संभव ही नहीं है। भवी जीव के लिए परिवर्तन संभव है । अतः गुणस्थानों के परिवर्तन का आधार मात्र गुणों पर निर्भर करता है। आत्मा में गण परिवर्तन आन्तरिक कक्षा में परिवर्तित हो तो निश्चित ही परिवर्तन संभव है, परन्तु शरीर पर लिंग मात्र के परिवर्तनों का कोई मतलब नहीं है । जिस गुणस्थान का जो निश्चित-निर्धारित स्वरूप है वह आने पर वह गुणस्थान निश्चित रूप से आएगा। उदा. जीवादि नौं तत्त्वों, तथा देव-गुरु-धर्म की यथार्थश्रद्धा आ जाने पर ४ था गुणस्थान जरूर आएगा। देशरूप से अर्थात् अल्प प्रमाण में भी यदि व्रत-विरति-पच्चक्खाण आएगा तो ५ वाँ गुणस्थान जरूर आएगा। इसी तरह साधुजीवन के २७ गुणों की कक्षा तथा संसार के त्याग की प्रक्रिया बनने पर छट्ठा गुणस्थान जरूर आएगा। बस, व्यवहारनय की अपेक्षा जितना भी बाह्य परिवर्तन है वह मात्र १ से ६ गुणस्थान तक ही है। यह बाह्य परिवर्तन व्यवहारिक रूप से रहता है । बाह्य चिन्हरूप पहचान का सहायक बनता है । १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर तो पूरी दुनिया है। चाहे किसी भी प्रकार की वेशभूषा हो वह पाप की प्रवृत्ति में रत-आसक्त होगा। वही मिथ्यात्वी कहलाएगा। ४ थे सम्यक्त्व के गुणस्थान की व्यवहारिक पहचान के लिए पूजा की अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९६३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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