SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु का ही मिलेगा। (विशेष वर्णन-केशलुंचन, पादविहार, महाव्रतों आदि का स्वरूप ११ वे १२ वे प्रवचन की पुस्तिका को पढकर समझा जा सकता है।) एक बार ग्रहण किया हुआ चारित्रधर्म रूप ऐसा साधुत्व मृत्यु की अन्तिम श्वास तक भी वापिस छोडा ही नहीं जा सकता है । ऐसा चारित्र छठे गुणस्थान से प्रारंभ होता है और १४ वे गुणस्थान तक यही चारित्र समान रूप से रहता है । यह आधारभूत है । अतः आगे के समस्त गुणस्थान संसार के त्यागी साधु के हैं । अतः जो ५ वे गुणस्थान से आगे चढा नहीं है, जो साधु बना ही नहीं है वह भी यदि अपने आप को आगे के गुणस्थान पर आरूढ बताना अनुचित है। १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर कोई वीतराग तीर्थंकर सर्वज्ञ भगवान भी बन जाय तो भी वह सर्वप्रथम साधु तो है ही। बाद में वीतराग-सर्वज्ञ या भगवान है । प्रथम साधु . है इसीलिए स्तुति-स्तवना तथा गुणकीर्तन आदि स्तोत्रादि में भगवान के लिए गुरु, मुनि, साधु, श्रमण आदि विविध शब्दों का संबोधनादि के रूप में प्रयोग किया गया है । अतः छठे गुणस्थान से आगे के सर्व १४ वे गुणस्थान तक सभी साधु हैं । छठे गुणस्थान से नीचे पहले गुणस्थान तक के सभी असाधु-गृहस्थी-घरबारी है । इस तरह १४ गुणस्थान पर साधु-असाधु ऐसे दो विभाग में विभक्त जीव हैं। दो ही मालिक कह सकते हैं एक साधु और दूसरा गृहस्थी है । दोनों के अपने-अपने गुणस्थान हैं। गुणस्थानों का परिवर्तन कैसे? . जिस जिस गुणस्थान का जो जो स्वरूप निर्धारित किया गया है वैसी अवस्था जिस जीव को प्राप्त हो वह उस गुणस्थान पर आरूढ होता है। यदि आगे के गुणस्थान के लक्षण, गुणस्थान वैसी अवस्था यदि प्राप्त न हो तो निश्चित समझिए कि आगे का गुणस्थान कभी भी प्राप्त नहीं होता है । प्रत्येक गुणस्थान के द्रव्य और भाव दोनों स्वरूप है । द्रव्य स्वरूप में बाहरी आकार प्रकार बदलता है और भाव स्वरूप में आन्तरिक गुणात्मक भूमिका बदलती है। फिर भी गुणस्थान प्रधानरूप से आन्तरिक ही है। यदि कोई बाहरी दृश्य बदल भी दे तो इतने मात्र से उसका गुणस्थान बदल नहीं जाता है । मानों कि कोई गृहस्थ साधु का वेष धारण कर ले इतने मात्र से वह छट्टे गुणस्थान पर आरूढ नहीं हो जाता है या छट्ठा साधु का गुणस्थान आ नहीं जाता है। यदि इतना आसान हो तो नाटक में काम करनेवाले कई कलाकार हैं जो थोडी देर के लिए साधु का वेष धारण कर ले, या थोडी देर के लिए भगवान के जैसी वेषभूषा भी बना ले तो क्या उससे भगवान थोडे ही बन जाता ९६२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy