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________________ क्रोध - मान-माया - लोभ - राग-द्वेष- कामवासना आदि सब यदि मन में बसे हुए हो या फिर मन उनमें फसा हुआ हो तब तक कोई संसार से छुटकारा नहीं पाता है और ज्योंही ये छूट जाते हैं, इनसे छुटकारा पाता हैं, या मन बिल्कुल ही अलिप्त हो जाता है तब निश्चित समझिए कि अब उसका भव- पार हो जाएगा। अब संसार में नहीं रहेगा । छट्ठे गुणस्थान पर संसार को त्यागकर जीव जब साधु बनता है तब संसार की कारक एवं कारणभूत सभी साधन - सामग्रियाँ छूट जानी चाहिए। उदाहरणार्थ — पत्नी, पुत्र, परिवार तो पहले छूटना ही चाहिए। फिर धन-संपत्ति - पैसा - माल - मिल्कतजमीन-जागीरदारी सब छूट जानी चाहिए। बस, इस माया का अब कोई संबंध मात्र भी नहीं रहना चाहिए । अर्थात् संसार को छोडकर साधु बनने के बाद अब नया पैसा भी अपने पास रखना नहीं चाहिए । पैसे को छूना तक नहीं । स्पर्श मात्र भी वर्ज्य । फिर धन-संपत्तिरूप धन-दौलत माल - मिल्कत बिल्कुल पास रखनी ही नहीं । उसका मालिक भी नहीं बनना । जमीन-जायदाद बाग-बगीचे - बंगले या मठ - आश्रम भी अपनी मालिकी के नहीं रखने चाहिए। नहीं तो फिर अलिप्त नहीं रह पाएगा। फिर उसका मोह-ममत्व आकर्षित करेगा । इसलिए जैन साधु की आचार संहिता ऐसी सर्वोत्तम कक्षा की तीर्थंकर भगवंतों ने बनाई है कि... जैन साधु के लिए इनके महाव्रत ही बना दिये । दीक्षा लेकर साधु बननेवाले को आजीवन पर्यन्त अर्थात् मृत्यु की अन्तिम श्वास पर्यन्त विजातीय स्त्रीवर्ग का स्पर्श भी नहीं करना । चाहे पूर्वाश्रम गृहस्थाश्रम की वह बहन, बेटी भी हो तो भी उसका स्पर्श मात्र भी जीवनभर नहीं करना । इसे ब्रह्मचर्य महाव्रत के साथ जोड दिया गया । यह ४ था महाव्रत और दूसरी तरफ धन-संपत्ति, माल - मिल्कत आदि के सर्वथा त्याग को ५ वाँ महाव्रत कह दिया । इस तरह जैन साधु को जिन्दगी भर के लिए इन दो सबसे बडे संसार कारक दूषणों से बचा लिया। भीष्म प्रतिज्ञा करा दी । इसी तरह प्रथम महाव्रत में अहिंसा की सूक्ष्मतम गहराई को जैन साधु के जीवन में उजागर कर दी । चरितार्थ कर दी। दीक्षा लेकर साधु जीवन ग्रहण करने के पश्चात् सूक्ष्म अहिंसा जीवमात्र की रक्षा करने की सर्वोत्तम भावना से जिन्दगीभर तक कच्चे पानी का स्पर्श तक न करना । फल-फूल - पत्ते आदि हरी वनस्पति - बीजादि का भी जिन्दगी भर तक स्पर्शमात्र भी न करना। अग्नि का भी स्पर्शमात्र न करना और कोई रसोई बनानी या करनी आदि कुछ भी नहीं। इस प्रकार समस्त जीव राशि के ६ जीवनिकायों की विराधना का सर्वथा त्याग । सोचिए, हिमालय की गुफा में रहना आसान है लेकिन इस प्रकार का ऐसा संपूर्ण त्यागमय जीवन जीना सबसे कठीन है। ऐसा साधुत्व संसार में एकमात्र जैन अप्रमत्तभावपूर्वक " ध्यानसाधना " ९६१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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