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________________ कर्मों की जो कर्मरज है उनका भी प्रक्षालन = धोने रूप शुद्धि तपश्चर्या और संयम के द्वारा होती है । अतः ये तप-संयमादि भावतीर्थरूप है। अप्रमत्त की कक्षा में प्रवेश ७ वे गुणस्थान की अप्रमत्त की कक्षा में आत्मा का प्रवेश कैसे होता है ? क्या करने से अप्रमत्त बना जा सकता है इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए फरमाते हैं कि चतुर्थ कषाय—जो संज्वलन कषाय के नाम से पहचाना जाता है- जिसमें संज्वलन की कक्षा के क्रोध, मान, माया और लोभ चारों की गणना होती है, ऐसे संज्वलन कषाय की ज्यों ज्यों मन्दता उत्तरोत्तर होती जाय त्यों त्यों साधक अप्रमत्तता की तरफ अग्रसर होता जाता है। कहा है कि यथा यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।. . तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ॥१॥ यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि ॥२॥ ... जैसे जैसे सुलभ-सुखरूप सहज में ही इच्छानुरूप प्राप्त होनेवाले विषय भी रुचिकर नहीं लगते हैं, पसन्द नहीं आते हैं वैसे वैसे... उत्तम तत्त्व की गहराई का ज्ञान भी आनन्दरूप से प्राप्त होता ही जाता है और जैसे जैसे उत्तम तत्त्वों की गहराई में डुबकी लगाता हुआ साधक ज्ञानानन्द प्राप्त करता ही जाता है, वैसे वैसे उसको सहज-सुखरूप प्राप्त होनेवाले रुचिकर विषय भी नहीं रुचते हैं। न ही पसंद आते हैं । दशवैकालिककार ने सच्चे त्यागी का लक्षण बताते हुए इसी सन्दर्भ में साफ कहा है कि वत्यगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि । अच्छंदा जे न भुंजंति न से चाइत्ति वुच्चइ ॥ वस्त्र, सुगंधित अत्तर, विलेपन, तथा आभूषण-अलंकार, सुंदर रमणीय स्त्रियाँ, एवं शयन-पलंगादि भोगोपभोग की सामग्रियाँ जिसको प्राप्त ही नहीं हुई हैं, मिली ही नहीं हैं, अर्थात् उनके अभाव में यदि कोई नहीं भी भोगता है तो उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता। यदि कहने लगे तो सर्वप्रथम भिखारी को ही अच्छा श्रेष्ठ त्यागी कहना पडेगा। लेकिन यह तो अभावात्मक त्याग है । जब उसके पास कुछ है ही नहीं उसे मनोरम भोगोपभोग की कोई साधन-सामग्री, विषय पदार्थ जब मिले ही नहीं है और इसी कारण नहीं भोगता ९६८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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