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Pure 0
क्षीण मोज
उपशांत मोह ।
सूक्ष्म संप
साधु
अनिवृत्ति
.
अपूर्वकरण
अप्रमत्त.
सर्वविरनि योगों के कारण कर्म बांधती ही रहती है। कर्मों का बंध भी इन तीनों योगों के द्वारा और कर्मों की निर्जरा भी इन तीनों के द्वारा ही होती है । इन तीनों योगों की सक्रियशीलता पर बंध का आधार है। इसलिए यह योगनामक बंधहेतु अयोगी स्वरूप को रोकता है। उसका अवरोधक बाधक है । इसलिए किसी भी रूप में इन तीनों योगों के बंधन को हटाकर आत्मा को अयोगी बनाना ही लाभदायक है। प्रबल पुरुषार्थ करना श्रेयस्कर है। इन बंध-हेतुओं के अभाव में आत्मगुणों का प्रगटीकरण होगा, तब आत्मा एक-एक गुणस्थान के सोपान आगे बढ़ती ही जाएगी, चढती ही जाएगी। १४ गुणस्थानों में साधु असाधु
उपरोक्त सोपानों की तालिका का चित्र देखने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि... १४ गुणस्थानवर्ती गुणियों को दो विभाग में विभक्त किया जा सकता है । १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान से लेकर ५ वे गुणस्थान तक के
प्रमत्तसंयत
दशविरत
असाधु
- Helene
मियान्यो
अप्रमत्तभावपूर्वक ध्यानसाधना"
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