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________________ ३) प्रमाद बंधहेतु छट्टे गुणस्थान तक है । यह १ से ६ गुणस्थान तक अपनी सत्ता रखता है और १ से ६ गुणस्थानवर्ती सभी जीव प्रमादग्रस्त प्रमादी होते हैं। मिथ्यात्वी जीव प्रमादी हो यह तो समझा जा सकता है, लेकिन ४ थे गुणस्थान पर सम्यक्त्वी जो धर्मश्रद्धावाला होता है, अरे ! ५ वे गुणस्थान पर धर्म का आचरण करनेवाला सम्यक्त्वी होता है, और इससे भी आगे चढा हुआ ६ढे गुणस्थानवाला जीव जो संसार का त्यागी-विरक्त वैरागी-चारित्रधारी संयमी साधु होता है वह भी प्रमादाधीन हो जाता है। फिर ६ढे गुणस्थान से नीचे के जीवों की तो बात ही क्या करना? अतः प्रमाद बंधहेतु अप्रमत्तभाव को रोकता है और ७ वें गुणस्थान पर पहुँचने-चढने ही नहीं देता है। प्रमाद में विषय कषाय, विकथा, मद, निद्रा आदि सब में जीव ग्रस्त हो जाता है । इन सबकी प्रवृत्ति करने लग जाता है । और अपनी आत्मा का अहित करता है । अतः अप्रमत्तभाव के रोधक इस प्रमाद दोष को दूर करना ही लाभदायी है । इसीसे आत्मा का विकास अवरुद्ध नहीं . होगा और आत्मा आगे बढ पाएगी। ४) कषाय यह भी ४ था बंधहेतु है । इसकी सत्ता पहले गुणस्थान से लेकर आगे १० वे गणस्थान तक रहती है । सोचिए ! कुल मिलाकर है ही सिर्फ १४ गुणस्थान और इनमें १४ वाँ तो ५ हस्वाक्षर उच्चार मात्र काल का है । मोक्षगमन का है । अब बचे शेष १३ । और इन १३ में से १० तो कषाय ही खा जाता है । ११ वाँ तो सुषुप्त कषाय के उदय का ही है। इस तरह यदि इसकी भी गिनति करें तो ११ गुणस्थान तो कषाय की मालिका के हो जाते हैं । अब बचे सिर्फ २ । १२ वाँ और १३ वाँ । ये दोनों गुणस्थान संपूर्ण रूप से बिना कषाय के शद्ध हैं। अतः ज्यों ही कषाय-मोहनीय कर्म संपूर्ण-सर्वांशिक क्षय होकर हटा कि आत्मा के वीतराग भावादि गुण प्रगट हो गए। केवलज्ञानादि प्रगट हो जाते हैं । अतः १ से लेकर १० वे गुणस्थान पर एक छत्री साम्राज्य जमाकर बैठे हुए इस कषाय को तो समूल नाश करके निकालना ही चाहिए । आत्मा के वीतरागभाव के अवरोधक इस कषाय को आत्मशत्रु-आन्तर शत्रु आदि समझकर हनन करना ही चाहिए। तभी जाकर साधक १३ वे गुणस्थान पर अरिहंत बनेगा। और दुनियाँ “नमो” शब्द आगे जोडकर ऐसे अरिहंत को “नमो अरिहंताणं" मंत्र पद से सदा ही नमस्कार करती रहेगी। ५) ५ वाँ बंधहेतु योग है । यह भी १ ले गुणस्थान से लेकर १३ वे गुणस्थान तक अपना साम्राज्य बनाए बैठा है । मन, वचन और काया ये तीनों योग आत्मा को अपने वश में रख लेते हैं । अतः आत्मा इनसे घिरी हुई रहती है । इस घेरे में फसी हुई आत्मा इन तीनों ९५८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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