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है । बस, यहाँ से ही आत्मा के विकास की यात्रा का प्रारंभ होता है । यही केंद्रबिन्दु है । (सम्यक्त्व का वर्णन पहले काफी किया जा चुका है।) बस, सम्यक्त्व के आच्छादक मिथ्यात्व को भगा दिया जाय, क्षय किया जाय तो सम्यक्त्व आ जाएगा। अर्थ के रूप में कहें तो भगवान, गुरु और धर्म तथा तत्त्वों के प्रति की विपरीत वृत्ति-गलत मान्यता, झूठी अंधश्रद्धादि सब दूर हो जाएगी तथा उन सबके बारे में जीव के लिए विकास की दिशा का सन्मुखीकरण होता है । आज दिन तक मिथ्यात्ववासित होकर जीव जो विपरीत चलता था, मोक्ष से उल्टी दिशा में चलता था, अब वह सम्यक्त्व पाकर मोक्ष सन्मुख बनता है। अब सम्यक्त्वी-साधक सम्यक्त्व के इस छोटे से बीज को पाकर अब विकास की दिशा में तेजी से आगे दौड पाएगा। जी हाँ,... सम्यक्त्व से सत्यता की सही पहचान हो जाती है। भूले भटके मुसाफिर को विपरीत दिशा से गलत रास्ते से सही दिशा के सच्चे रास्ते पर आने से जितना आनन्द होता है, ठीक उसी तरह इस भवपरंपरा के संसार में भटकता जीव मिथ्यात्वरूपी भूले भटके गलत रास्ते से मुडकर सम्यक्त्व के सच्चे सही मार्ग पर आकर मोक्षप्राप्ति की सही दिशा में चलते हुए अनेक गुना आनन्द पाता है । अतः मिथ्यात्व जो सम्यक्त्व को रोकता है-रोधक है उसको सबसे पहले हटाकर आत्मा को विकास की दिशा में अग्रसर करना ही उत्तम मार्ग है।
२) अविरति बंधहेतु-विरति धर्म को रोकता है । अविरति-अव्रती बनाती है। छकाय जीवों की विराधना कराती है। हिंसादि होने के कारण उस अविरतिधारक को अव्रती बना देती है । हिंसा-झूठ-चोरी-अब्रह्म-परिग्रह के पाप अव्रत को कराती है। अतः अविरति अधर्म है । पापरूप है । इनकी निवृत्तिरूप धर्म ही विरतिधर्म है । वि+रति = विरति । इस शब्द में प्रयुक्त रति शब्द आनन्द-मजा सूचक है, प्रिय पसंदगी के अर्थ को ध्वनित करता है। किसमें रति? अविरति-जो १८ पाप की प्रवृत्ति है उसमें आनन्द मजा आती है । हिंसादि द्वारा दूसरे जीवों को मारने में भी जिसको मजा आती है वह अविरति-अव्रती कहा है। विरति शब्द में प्रयुक्त 'वि' उपसर्ग का अर्थ विगता रतिः यस्मादिति विरतिः = जिसमें से रति आनन्द का भाव जो हिंसादि जन्य है वह निकल गया है इसलिए विरति धर्म है । अविरति शब्द का ठीक विरोधी विपरीतार्थवाची विरति धर्म है । आत्मा को पापाश्रव से बचाता है। अविरति का बंधहेतु विरति धर्म को रोकता है । अवरोधक है । ४ थे गुणस्थानक तक इसकी सत्ता रहती है । अतः यह विरति धर्म को तनिक भी पास आने नहीं देता है । अतः १ से ४ गुणस्थानवी जीव अविरतिवाला रहता है । विरतिरोधक अविरतिं को हटाना चाहिए।
अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना"
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