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संशयों को वहाँ बैठे बैठे ही दूर करने में जिन द्रव्य मनोवर्गणा के पुद्गल परमाणुओं की आवश्यकता रहती है उतने ही द्रव्य मन को बनाते-रखते हैं। इस तरह मन वचन और काया के तीनों योग १२ वे-१३ वे दोनों गुणस्थानों पर रहते हैं। शेष ४ बंधहेतु तो चले गए, अब एक मात्र योगज बंध रहा है। अतः इन दोनों गुणस्थानों पर भी अल्प मात्रा में कर्मबंध का निमित्त बचा है । अतः कर्मबंध होता तो है ही। लेकिन अब सांपरायिक बंध न होकर कषायरहित मात्र योगज बंध ही होता है । इस तरह वीतरागी केवली होने के पश्चात् भी बंधहेतु का अस्तित्व नहीं छूटा।
अन्त में जीव १४ वे गणस्थान पर पहँचा। वहाँ वीतरागता-सर्वज्ञतादि सब तो समान रूप से वैसे ही रहते हैं । लेकिन अब मन-वचन-काया के तीनों योगों का निरोध करते हैं। क्या करना है इन योगों को रखकर? अतः तीनों योगों का निरोध कर अयोगी बनते हैं । जड देह ही छोड देंगे तब कैसे जीएंगे? संभव ही नहीं है । अतः १४ वे गुणस्थान पर पंचह्रस्वाक्षरों का उच्चार करने जितने ही परिमित काल में देहादि सब छोडकर परिनिर्वाण-मोक्ष पद को प्राप्त हो जाते हैं । बस, अब शरीर-देह-मन-वचन किसी की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है। चेतनात्मा इन तीनों के बिना प्रकाशपुंज की तरह आत्मप्रदेश के शुद्ध स्वरूप में पुंजमात्ररूप में रहती है। बस, यही उसकी सिद्धबुद्ध-मुक्तावस्था है।
इस तरह १४ गुणस्थानों पर बंधहेतुओं का क्रम है तथा बंधहेतुओं के आधार पर . गुणस्थानों के नामकरण की व्यवस्था कैसी है उसका ख्याल आ जाता है। तथा किस बंधहेतु की किस गुणस्थान तक स्थिति प्रवृत्ति है इसका भी ख्याल आ जाता है। बंधहेतुओं द्वारा आवृत्त धर्म
ये पाँचों प्रकार के मिथ्यात्वादि बंधहेतु आत्मा के मुख्य उपयोगी अत्यन्तावश्यक धर्मों-गुणों को रोक देते हैं । अतः वे आवृत्त रहते हैं, प्रकट नहीं हो पाते हैं । उदाहरणार्थ
१ ले मिथ्यात्व बंधहेतु ने प्रगट रहकर आत्मा के लिए विकास में सर्वप्रथम सोपान जहाँ से उत्थान की शुरुआत होती है उस सम्यक्त्व को ही रोक दिया है । अतः जब तक मिथ्यात्व रहेगा तब तक वह सम्यक्त्व को आने ही नहीं देगा । रोके रखेगा । अतः सम्यक्त्व को लाना हो तो मिथ्यात्व को विदाय करना ही होगा। निकालना ही होगा। सम्यक्त्व यह आत्म गुण है । धर्म है । उपयोगी है । आध्यात्मिक विकास की यात्रा का यही प्रथम सोपान
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आध्यात्मिक विकास यात्रा