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आगे ७ वे गुणस्थान का नाम अप्रमत्त संयत कहा है। वह भी सार्थक सही है । क्योंकि निषेधवाचक 'अ' अक्षर प्रमत्त के आगे लगाया है । वह इसलिए कि ७ वे गुणस्थान पर आकर जीव ने प्रमाद का त्याग कर दिया है। प्रमाद छोड दिया है अतः वह प्रमादबंध नहीं रहा । परन्तु ऊपर के कषाय और योग दोनों बंधहेतु तो अभी भी मौजूद हैं।
१० वे गुणस्थान का “सूक्ष्म संपराय" नाम भी यह सूचित कर रहा है कि— “संपराय" शब्द का सीधा अर्थ ही कषाय होता है। शायद आप जानते ही होंगे कि कष् + आय = कषाय शब्द की निष्पत्ति है । यहाँ 'कष्' का अर्थ संसार है और आय
अर्थ लाभ होना है । अतः जिससे संसार का लाभ होता है अर्थात् संसार की वृद्धि होती है वह “ कषाय” कहलाता है । यद्यपि १० वे गुणस्थान पर यह संपराय सूक्ष्म मात्र ही है । लेकिन है सही 1 क्योंकि अब मात्र लोभ ही बचा है और वह भी सूक्ष्म की कक्षा का ही है । अतः सूक्ष्मसंपराय नामकरण कषाय के बंधहेतु के कारण उचित ही है । इसी तरह नौंवे गुणस्थान का नाम जो अनिवृत्ति बादर है वह भी सार्थक है । क्योंकि वहाँ पर बादर अर्थात् . • स्थूल मात्रा में भी कषाय क्रोध, मान तथा माया तीनों उपस्थित हैं तथा तीनों के द्वारा कर्मबंध भी चालू रहता है ।
अब सयोगी केक्ली ... जो १३ वे गुणस्थान पर पहुँच जाते हैं। ऐसे महात्मा चारों घनघाती कर्मों का क्षय करके केवली - सर्वज्ञ - वीतरागी बन जाते हैं फिर भी ऐसी कक्षा योग रहता है अतः सयोगी कहलाते हैं । मन, वचन और काया के तीनों योग १२ वे तथा १३ वे इन दोनों गुणस्थान पर रहते हैं । यहाँ योग शब्द बंधहेतु के पाँचवे प्रकार योग का वाचक है । जैसे कि पिछले सभी गुणस्थान पर भिन्न-भिन्न गुणस्थान के नामकरण के साथ बंधहेतुवाचक शब्द नाम के रूप में जुडे हुए हैं। ठीक वैसे ही १३ वे गुणस्थान के नामकरण में आगे जुडा हुआ सयोगी शब्द अर्थात् योगसहित मन-वचन - काया के तीनों योगवाले अर्थ में है । हाँ, जब जी रहे हैं वहाँ तक शरीर तो बना हुआ साथ ही है । यदि शरीर ही छूट जाय तो मृत्यु हो जाय। इसलिए शरीर- काय योग तो बना हुआ है ही । शरीर है तो वाचा - भाषा भी है ही । बोलना - देशना देना आदि वाचिक व्यवहार करने में भाषा के प्रयोग में बोलना तो पडता ही है। इसलिए काय योग के साथ वचनयोग भी है ही । अब बात रही मनोयोग की । केवलज्ञानी को सोचने विचार करने की कोई आवश्यकता रहती ही नहीं है। अतः भाव मन की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है । फिर भी हेमचन्द्राचार्यजी वीतराग स्तोत्र में लिखते हैं कि- “ संशयान्नाय हरसे अनुत्तर स्वर्गीणामपि " अनुत्तर विमान जैसे कल्पातीत कक्षा के सर्वश्रेष्ठ स्वर्ग के देवताओं के भी
अप्रमत्तभावपूर्वक " ध्यानसाधना "
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