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करता रहेगा। अभी तक जीवों की रक्षा करने आदि की उसकी वृत्ति ही नहीं बनी है।
४ थे गुणस्थान से आगे५ वे गुणस्थान पर एक सोपान आगे बढने पर वही अविरति प्रमाण में आधी हो गई है । यद्यपि अविरति संपूर्ण रूप से सर्वथा नहीं गई है, इसलिए देशविरति गुणस्थान नामकरण किया गया है । यहाँ देश शब्द राष्ट्र या राज्यवाचक नहीं है परन्तु अल्प प्रमाण अर्थ प्रयुक्त है । जो अविरति बंधहेतु था वह अब विरति धर्म में बदल रहा है । लेकिन सर्वांशिक संपूर्ण नहीं । इसलिए देशरूप में विरति धर्म आया और कुछ प्रमाण में अविरति भी रहती है। जब सामायिक प्रतिक्रमण–पौषधादि करता है तब विरति में रहता है.। और जब सामायिकादि पूरी हो जाती है या पार लेता है तब पुनः
अविरति में आ जाता है। विरतिरूप सामायिकादि में रहते समय ६ जीव निकाय की विराधना नहीं करेगा। बस, उसमें साधु जैसा जीवन जीएगा । इसीलिए सूत्र में स्पष्ट कहा है कि- “समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥" जहाँ तक श्रावक सामायिकादि की विरति में रहता है तब वह श्रमण = साधुतुल्य कहलाता है। इसी कारण से बार-बार ज्यादा से ज्यादा सामायिक करनी चाहिए । वैसे भी शास्त्रकार महर्षी और ज्यादा स्पष्ट कहते हैं कि
सामाइय-पोसहमि अ, जो कालो गच्छइ जीवस्स।
सो मुक्खफल देई, सेसो संसार फल हेउ ।। - अर्थात् सामायिक पौषध में जीव का जितना काल जाता है-बीतता है उतना ही और वही काल मोक्षफल देता है, अर्थात् मोक्षगमन के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। बस, उसके सिवाय का सारा ही जो अविरति का काल है वह संसार की वृद्धि का फल देता है । उससे संसार बढता ही रहता है । इस श्लोक में विरति का भी फल बताया है और विरति का भी प्रमाण बताया है।
अब ५ वे गुणस्थान से आगे बढकर विकास की दिशा में जीव जब ६ढे गुणस्थान पर आरूढ होता है तब महाव्रत ग्रहण करके संपूर्ण रूप से अविरति का सर्वथा त्याग करके साधु बनता है । इससे यह स्पष्ट होता है-जिस किसी को भी संसार का महाभिनिष्क्रमण करके यदि साधु बनना हो तो सबसे पहला प्राथमिक नियम इतना तो जरूर आ जाता है । कि वह ६ जीव निकाय की विराधना-अविरतिरूप बंधहेतु आश्रव का तो त्याग करना चाहिए। ७ पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायु-वनस्पती तथा त्रसादि के समस्त जीवों की रक्षा करते हुए आचारसंहिता बनानी चाहिए। आचार-विचार में ही ऐसी व्यवस्था बैठानी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा