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________________ १०० साल के बाद जब आर्थिक दृष्टि से खूब नुकसानी में आ गए और खाने की भी समस्या खडी हो गई तब सोच विचार करके.... उन्होनें कुछ आभूषण बेचकर उन पैसों से आजीविका चलाने का सोचा । इस निर्णयानुसार वे बाजार में बेचने गए । तब सुवर्णकार सोनी ने देखकर-जाँचकर साफ शब्दों में कहा कि.... महाशयजी ! यह तो पीतल है। सोने का अंशमात्र भी नहीं है। क्या आप हमको ठगने आए हैं ? ऐसा कहकर थोडे दो शब्द कहे सुनाए और अपनी दुकान से हकाल दिया। ऐसी स्थिति में बडा व्यथित दुःखी हुआ बिचारा.... सिर पर हाथ पीटकर रोता ही रहा । स्वाभाविक ही था कि.... वह मनःसंतोष करने के लिए पूरे बाजार में १०-२० सभी दुकानों पर गया लेकिन सब जगह से एक ही उत्तर मिला । बेचारा हाथ मलता ही रह गया। सोनी ने साफ शब्दों में कह दिया और कसोटी के पाषाण पर कस के दिखा दिया कि... देखिए... साफ पीतल दिखाई दे रहा है। सचमुच १०० साल की जिन्दगी का अफसोस करता रहा। ऐसी स्थिति में उसको इतना ज्यादा दुःख हुआ कि... वह अन्तिम विचारों तक पहुँच गया कि... बस, अब तो धरती-जगह दे दे तो समा जाऊँ । क्या करूँ, किसी को मुँह दिखाने जैसा भी नहीं रहा । एक तरफ तो १०० साल तक आभूषण समझकर-मानकर संभालता रहा। और दुःख के दिनों में जब उपयोग करने का अवसर आया तब बिल्कुल खोटा-नकली निकला । अरे भगवान ! हाय ! यह क्या हुआ? जैसे १०० साल की जिन्दगी का यह अफसोस हुआ, ठीक उसी तरह पूरी जिन्दगीभर तक जो व्यक्ति शरीर की उठती हुई संवेदनाओं को देखता रहा, हठयोग का आलंबन लेकर श्वास को देखता रहा, श्वास प्रेक्षा ही करता रहा, या राजयोग सिद्धयोग • कहकर-मानकरं करता ही रहा, या नाचते-कूदते हुए हू-हू-हू करता ही रहा या फिर कैसेटों के बलपर संगीत के सहारे डायनामिक ध्यान करता रहा, या फिर यम-नियमादि किसी का भी रत्तीभर अंश न मानते हुए, न स्वीकारते हुए भी जो ध्यानादि करता ही रहा उन लोगों की, ऐसे कहलानेवाले ध्यानी-योगी की भी अन्त में जाकर ऐसी ही स्थिति होती है । उभयभ्रष्टता जैसी हालत होती है । न घर के न घाट के बस, धोबी के कुत्ते के जैसी हालत होती है। इसलिए १४ गुणस्थानों के जो सोपान बताए गए हैं उन सोपानों पर ही क्रमशः चढना चाहिए। आगे बढना चाहिए। आध्यात्मिक विकास अन्तरात्मा में होना ही चाहिए । आत्मिक परिवर्तन अन्दर की गहराई में होना ही चाहिए। क्योंकि गुणस्थान आत्मिक अध्यवसायों की शुद्धि पर अवलंबित है । वहाँ एक एक सोपान चढने में आगे बढने में किसी श्वास या शरीर की संवेदनाओं आदि के बाहरी लक्षणों का कोई अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९४५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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