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________________ महत्व ही नहीं है। वे सब बाह्य निमित्त मात्र हैं। लक्षण मात्र हैं। लेकिन अन्तरात्मा के अध्यवसायों में परिवर्तन आना ही चाहिए । अन्तरात्मा में राग-द्वेष की मात्रा क्रमशः घटती ही जाय, कषाय भाव की परिणति क्रमशः समाप्त होती जाय और मिथ्यात्व का तो अंश मात्र भी बचा न रहे । तथा अविरति-अव्रत आदि का सर्वथा त्याग करके व्रती-त्यागी बनना ही चाहिए तो ही कर्मबंधादि की स्थिति मिट जाएगी। यही जरूरी है। . बंधहेतुओं के अनुरूप गुणस्थानों का नामकरण___ जैसे कि पीछे बंधहेतुओं के विषय पर काफी विचारणा कर आए हैं। ऐसे ४ या ५ कर्म के बंधहेतु हैं । १) मिथ्यात्व, २) अविरति, ३) प्रमाद ४) कषाय, और ५) योग। कर्मग्रन्थकार के मतानुसार अवान्तर समावेश के कारण४, और तत्त्वार्थकार के कथनानुसार ५ बंधहेतु हैं । (इनकी विचारणा पहले कर चुके हैं) ___१४ गुणस्थानों का जो नामकरण किया है । वह किस आधार पर किया है ? इसका भी विचार तो आ सकता है । और आना आवश्यक ही है। प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है। जैसे कि पहले १४ गुणस्थानों के नामों का निर्देश तो काफी पहले कर आए हैं उसको देखने से आपको स्पष्ट ख्याल आएगा कि... ये सारे ही नाम आत्मा की कर्मसंयुक्त अवस्था के आधार पर है और कहाँ किस बंधहेतु की प्राधान्यता है ? इतना ही नहीं आपको आश्चर्य तो इस बात का होगा कि सभी नामादि भी एकमात्र मोहनीय कर्म के आधार पर है। और सभी बंधहेतु भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के आधार पर है। मोहनीय कर्म विभाग कर्म बंधहेतु के भेद १) मिथ्यात्व-दर्शन मोहनीय- ३ १) मिथ्यात्व १) मिथ्यात्व २) मूलकषाय- चारित्र मोहनीय-१६ २) अविरति २) अविरति ३) नोकषाय चारित्र मोहनीय- ६ ३) प्रमाद ३) कषाय ४) वेद मोहनीय ३ ४) कषाय ४) योग कुल प्रकृतियाँ- २८ ५) योग १) मिथ्यात्व तो वैसे भी मोहनीय कर्म की प्रकृति है ही, तथा समान रूप से बंधहेतु भी है ही। २) चारित्र मोहनीय कर्म के घर में अविरति प्रधानरूपसे रहती है । विरति का अभाव ही अविरति स्वरूप है । अविरति में हिंसा, झूठ, चोरी आदि जो अव्रत हैं वे भी मूल ९४६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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