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________________ जबकि अपने आपको साधु संत कहलानेवालों को यह भी सोचना ही चाहिए कि मुझे ऐसे देशविरतिधर श्रावक से ज्यादा त्याग, विरति-व्रत-पंच्चक्खाण ग्रहण करने ही चाहिए। तभी हम महात्यागी, महाव्रती कहलामंगे। मुख्य कर्म बंध के हेतु मिथ्यात्व अविरति-कषायादि हेतुओं का त्याग करना ही चाहिए। तभी सार्थक साधुता प्राप्त होगी। अन्यथा ऐसे कहलानेवाले नामधारी, वेषधारी साधु संत किसी काम के नहीं रहेंगे। सच्ची साधुता आए बिना आगे के गुणसोपानों पर विकास नहीं होगा। आरोहण नहीं होगा। ये तो साधु-संत बनने का बहाना बनाते हैं। लेकिन घरबारी गृहस्थ बने. हुए एक दो नहीं अनेक ऐसे भी हैं जो कि अभीतक मिथ्यात्व का आवरण भी भेद नहीं पाए हैं और बिना मिथ्यात्वत्याग के...वे थोडी देर आँख मूंदकर किसी आसन में बैठे नहीं कि... अपने आपको कोई राजयोगी, कोई सहजयोगी, कोई महायोगी और और न मालूम क्या क्या बन बैठे हैं ? लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि... अपने संसार की प्रवृत्ति में तो आरंभ समारंभी ही है । अब्रह्म मैथुन सेवनादि भी करता ही रहता है । असत्य-झूठ-चोरी का आचरण चालू ही है । और आरंभ-समारंभ के विषय में छजीव-निकाय के जीवों की हिंसा-विराधना भी चालू ही है फिर भी ऐसा घरबारी कहता है कि मैं भी ध्यानी-योगी बन गया हूँ । अरे ! अष्टांग योग की प्रक्रिया में से अभी तक यम-नियम का तो अंश मात्र भी ठिकाना ही नहीं है और सीधे ही ध्यान की सर्वोच्च कक्षा भी प्राप्त कर ली यह भी कितना बडा आश्चर्य है। कोई तो कहता है कि.... बस, हमने अंशमात्र भी आँखे बंद करके शरीर की संवेदनाओं को देख लिया, अतः हमने अच्छा ऊँचा ध्यान कर लिया, हम ध्यानी हो गए। ऐसे कैसे कोई ध्यानी हो जाता है ? क्या ध्यान इतना सरल है ? जी नहीं। यह कैसे संभव हो सकता है? या तो ध्यान को सही अर्थ में समझा ही नहीं गया है। इसीलिए ऐसी स्थिति बनती है कि बस, हमने जो किया वही ध्यान है। चाहे सही ध्यान हो वह हम कर पाएं या नहीं लेकिन हमने किया वही सही ध्यान है ऐसी भ्रान्ति-भ्रमणा और आभासमात्र में रह जानेवाले व्यक्ति जीवन में इतो भ्रष्ट-ततो भ्रष्ट अर्थात् उभय भ्रष्ट जैसी स्थिति बना देते हैं। __ जैसे एक पिता ने अपने पास रहे पीली धातु के आभूषणों को अपने आप ही सोने के मान लिये। और १०० वर्षों तक अपनी जान से भी ज्यादा उनकी चिन्ता करता रहा। संभालने के लिए, सुरक्षित रखने के लिये भी काफी लम्बा खर्च भी किया। उसकी धारणा ऐसी थी कि...जो भी पीला होता है वही सोना होता है। वह सोने को ही पीला नहीं मानता था परन्तु पीले को ही सोना मानकर चलता था। ऐसी अज्ञान दशा थी। इसलिए ९४४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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