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रहनेवाला साधु, तथा योग बंध हेतु चालु रहने पर भी तीनों प्रकार के योगों की गुप्ति का, तथा ५ समिति आदि का इस तरह अष्टप्रवचनमाता का पूर्ण रूप से पालन करनेवाला ऐसा साधु कहलाता है।
इन १४ गुणस्थानों पर दो वर्ग के साधक ही रहते हैं । १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान से ५ वे गुणस्थान तक के जीव असाधु है । अविरति के उदयवाले श्रावक है । जबकि छठे गुणस्थान पर आरोहण तो साधु-श्रमण बनने के पश्चात् ही होता है । तथा आगे के सभी गुणस्थानों पर साधु-श्रमण ही रहते हैं । इसलिए आगे के सभी गुणस्थान एकमात्र श्रमण साधु के लिए ही हैं । अतः ६ से लगाकर १४ तक के आगे के सभी गुणस्थानों का मालिक साधु ही होता है । जिसके व्रत-विरति-पच्चक्खाण, त्याग का शुभ उदय काफी अच्छा होता है । यद्यपि १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर जीव तीर्थंकर भगवान, सर्वज्ञ सयोगी केवली बन जाता है फिर भी वह सर्वप्रथम साधु तो है ही। जैसे कोई हिन्दु-मुस्लीम है, लेकिन वह भी सबसे पहले मनुष्य तो है ही । सर्वप्रथम मनुष्य है, बाद में वह हिन्दु-मुस्लिम है। ठीक उसी तरह सबसे पहले साधु है ही। उसके पश्चात् वह वीतराग, तीर्थंकर और सयोगी केवली आदि है।
वर्तमान काल में भले ही अविरति कषाय आदि का त्याग न भी किया है, किसी भी प्रकार के व्रत, नियम तथा प्रत्याख्यान त्याग कुछ भी न किया हो, किसी भी प्रकार की प्रतिज्ञा भी नहीं की हो, या अविरति के कारणरूप छकाय की विराधना हिंसा पापादि का त्याग भी न किया हो और महापापत्यागपूर्वक महाव्रतादि भी ग्रहण न किये हो तो भी अपने आप को साधु-सन्त कहलाने के लिए तैयार हैं, ऐसे बन बैठे साधु द्रव्यलिंग या बाह्यलिंग से भले ही वेषधारी साधु की गणना-तुलना में आ सकते हो, लेकिन एक बात निश्चित ही है कि आभ्यन्तर कक्षा से वे अविरति-पापादिके उदयवाले छ जीवनिकाय की निरंतर विराधना करनेवाले हैं। इसी तरह वे निस्पृह शिरोमणी त्यागी-तपस्वी भी नहीं कहला सकते हैं । यदि सच देखा जाय तो ५ वे गुणस्थान पर जो गृहस्थी श्रावक है वह भी देशविरतिधर है । अतः सर्वांशिक नहीं तो आंशिक पच्चक्खाण उसने भी स्वीकार कर रखे हैं । अतः 'देश' शब्द का यहाँ प्रयोग किया है । “देश" का मतलब है आंशिक । कुछ छोटे प्रमाण में । जो साधु महावत को धारण करता है उसके सामने ५ वे गुणस्थानवर्ती जो गृहस्थाश्रमी घरबारी श्रावक है उसने भी देशतः-न्यूनतः विरति धारण की है, स्वीकार की है, अतः देशविरतिधर श्रावक कहलाता है।
अप्रमतभावपूर्वक “ध्यानसाधना"
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