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________________ है । ७ वे गुणस्थान से ऊपर के समस्त गुणस्थानवर्ती जीव अप्रमत्त गिना जाता है । जबकि ७ वे से नीचे के सभी गुणस्थानकों में जीव प्रमादग्रस्त है । अतः वे सभी प्रमादी हैं । चाहे वह संसार का सर्वथा त्यागी साधु संत भी बन जाय तो भी वह प्रमादी है। क्योंकि अभी तो मात्र बाह्य संसार ही छूटा है। बाह्य संसार आरंभ - समारंभात्मक था । हिंसादि - अविरति निमित्तक था। जबकि आभ्यंतर संसार तो क्लेश कषायात्मक है । उपाध्यायजी म. सा. ने यहाँ तक शब्दप्रयोग करके स्पष्ट कह दिया है कि "क्लेशेवासित मन संसार, क्लेशरहित मन होय भव पार ।” अर्थात् जहाँ तक क्लेश कषाय से वासित मन है, वहाँ तक संसार भाव की विद्यमानता माननी आवश्यक है और आगे जैसे ही क्लेश- कषाय भाव हटा कि बस, फिर तो संसारभाव - समाप्त । इसीलिए यह संसारभाव प्रमाद अर्थ में प्रयुक्त है। और प्रमादयुक्तता संसारभाव का द्योतक है। जी हां ! ७ वे गुणस्थान पर साधक के अन्दर संज्वलन, कक्षा के चारों कषाय सत्ता में पड़े हैं। लेकिन अप्रमत्त बनने में, ध्यानादि की साधना की प्रबलता होने के कारण अब उन ६ पायों का उदय—प्रवृत्ति नहींवत् है । इसलिए अप्रमत्तता की कक्षा साधक को ७ वे गुणस्थान पर हो जाती है। वह भी प्राधान्यतया ध्यान से होगी। और जैसे ही जहाँ ध्यान बदला अध्यवसाय गिरे कि फिर प्रमादग्रस्तता छा जाती है। और प्रमादग्रस्तता आई कि वापिस जीव छट्ठे गुणस्थान पर आकर प्रमादी बन जाता है । फिर प्रमत्त साधु रहकर पुनः कर्मदोषों का सेवन शुरू हो जाता है । फिर साधक बाजी संभाल ले तो वापिस अप्रमत्त बन भी जाता है । इस तरह साधु बना हुआ साधक इन दोनों गुणस्थानों पर झूले की तरह, या घडी के लोलक की तरह झूले खाता ही रहता है । १४ गुणस्थानों पर साधु और असाधु संसार से महाभिनिष्क्रमण करके मृत्यु की अन्तिम क्षण पर्यन्त सदा के लिए जो महात्याग करके निकला है वह साधु है। उसे पुनः संसार में प्रवेश कदापि नहीं करना है । और साधु अर्थात् जिसने मिथ्यात्व और अविरति के हिंसादि पापों रूपी कर्मबंध के हेतुओं और आश्रवों का सर्वथा त्याग कर दिया है आरंभ-समारंभ पूर्वक जो ६ काय की विराधना होती है, जीव जन्तु मरते हैं उन सारी प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग कर दिया है । तथा अनन्तानुबंधी - अप्रत्याख्यानीय तथा प्रत्याख्यानीय इस तरह ४+४+४ = १२ कषायों का सर्वथा त्याग कर दिया है ऐसा साधु तथा... जो शेष ४ संज्वलन कषाय के सत्ता में पडे जरूर हैं फिर भी उनका ज्यादा उपयोग न करते हुए आत्मसाधना के उपयोगभाव में आध्यात्मिक विकास यात्रा ९४२
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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