________________
रहेगी । अब तो साधक को निश्चय ही कर लेना पडेगा कि जब पुराने - पूर्वकाल के बंधे हुए कर्मों का क्षय तो कर नहीं पा रहा हूँ और नए कर्म कहाँ बांधूं ? जब खपाने -क्षय करने की क्षमता सामर्थ्य ही पूरा नहीं है तो फिर नए पापकर्म और क्यों उपार्जन करूँ ? निरर्थक परिश्रम करना और व्यर्थ का आयाम - व्यायाय करना यह कहाँ तक उचित है ? इसलिए अप्रमत्त कक्षा लाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है ।
आगे के गुणस्थान अप्रमत्त कक्षा के हैं
1
१४ गुणस्थानों को प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो विभागों में विभक्त किये जा सकते हैं । अतः इस दृष्टि से गुणस्थानवर्ती साधक को देखा जा सकता है । ये दो विभाग छट्ठे गुणस्थान से किये जाते हैं । अर्थात् १ से छट्ठे गुणस्थान तक मतलब कि मिथ्यात्व से लेकर छट्ठे साधु श्रमण तक के जीव प्रमत्त-प्रमादी कहलाते हैं । यद्यपि पहले मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव के प्रमादावस्था की अपेक्षा उत्तरोत्तर आगे बढते हुए ऊपर-ऊपर चढते हुए सोपानोंवाले जीव ज्यादा - ज्यादा अप्रमत्त अप्रमत्ततर और अप्रमत्ततम कक्षा अन्तिम गुणस्थान तक आती है, होती है, अर्थात् नीचे नीचे के गुणस्थानों पर ज्यादा से ज्यांदा प्रमादग्रस्तता रहती है ।
बाह्य प्रमादग्रस्तता अविरति के कारण ज्यादा रहती है। जबकि आभ्यन्तर कक्षा की आन्तरिक प्रमाद स्थिति कषायभाव के कारण ज्यादा रहती है । बाह्य प्रमाद में प्राणातिपात — हिंसादि, मृषावाद सेवन आदि बाहरी पापों की अविरति ज्यादा होने के कारण प्रमाद की मात्रा भी काफी ज्यादा रहती है। लेकिन बाह्य का त्याग भी काफी जल्दी होना संभव है जबकि आभ्यन्तर कक्षा में आत्मा का भीतरी कषायादि जन्य प्रमाद छूटना बडा जटिल काम है । क्योंकि अनादि काल से, अनन्तकाल से जीव सदा ही कषायग्रस्त रहा
है । अतः उसके संस्कार जीव पर ज्यादा हावी रहते हैं । अतः छट्ठे गुणस्थान तक जहाँ तक
I
I
कषाय भी ज्यादा सक्रिय है वहाँ तक प्रमादग्रस्तता दर्शायी है जबकि ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान से साधक ध्यानस्थ बन जाता है । फिर तो कषाय सत्ता में पड़ा भी रहे तो भी उसका उपयोग जीव करता नहीं है । लेकिन सत्ता की दृष्टि से कषायों के अस्तित्व का निषेध नहीं किया जा सकता है । क्योंकि संज्वलन भाव के चारों कषाय ७ वें तथा ८ वे, ९ वे गुणस्थान पर भी विद्यमान है ही । अतः जीव कषायाधीन है। जी हाँ ! जरूर है। फिर भी अब ७ वे गुणस्थान से आगे सर्वत्र ध्यान की साधना की अप्रमत्तता काफी ज्यादा है। ध्यान निर्जराकारक है । कर्मक्षयकारक है । इसलिए फिर कर्मबंध का प्रमाण नहींवत् हो जाता
अप्रमत्तभावपूर्वक “ ध्यानसाधना "
९४१