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________________ 1 1 अन्य भी सभी कर्म बंधते ही हैं । प्रवृत्ति भी मोहनीय कर्म की, पुराना उदय भी मोहनीय कर्म का ही है । और अंदर भाव कर्म भी मोहनीय के ही हैं। अतः उसकी वृत्ति - मनोवृत्ति भी मोहनीय कर्म की है । इस तरह चारों तरफ सारी प्रवृत्ति प्रधानरूप से मोहनीय कर्म की है । अतः प्रधानरूप से मोहनीय कर्म का बंध होता है । उसके साथ साथ कुछ हिस्सा - गोत्र - वेदनीय, अन्तराय - ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीयादि सबको मिलता रहता है, जिससे वे भी सभी पुनः बंधते ही रहते हैं। ऐसी जबरदस्त मोहजाल के बीच जीव फसा हुआ है। नाम अतः शास्त्रकार महर्षी साफ-साफ ठीक ही कहते हैं कि मोहमाया का यह संसार है और संसार में मोहमाया की ही अधिकता है । बोलबाला है । I प्रमाद और मोहनीय का संबंध 1 1 ऐसे मोहमाया से भरे हुए संसार में जीव प्रमादग्रस्त - प्रमादाधीन न हो यह कैसे संभव हो सकता है ? बहुत मुश्किल है । आध्यात्मिक शास्त्र में आत्मा की दृष्टि से देखने पर प्रमाद ही मोहनीय की दूसरी पर्याय बताई है । चाहे मोहनीय की प्रवृत्ति कहो या प्रमाद कहो दोनों बात एक ही है । एक दूसरे की पूरक एवं पर्यायवाची नामवाली है। बस, और कोई ज्यादा भेद नहीं है । इसलिए महापुरुषों ने प्रमाद करने का निषेध किया है । आत्मलक्षी के लिए, आत्मोन्नतिकारक जीव जो मोक्षमार्ग पर अग्रसर होते हुए एक एक सोपान विकास का चढ रहा हो ऐसी स्थिति में छोटा सा पाप भी बडा भारी अनर्थ कर सकता है। कई भव बढाने का नुकसान भी कर सकता है । इसलिए आत्मिक विकास के एक-एक सोपान क्रमशः चढते हुए आगे बढनेवाले जीव को तो प्रमाद और मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति से बचने के लिये ज्यादा सावधान रहना ही चाहिए। मोहनीय की समस्त प्रवृत्तियाँ प्रमादान्तर्गत समा जाती है। और ठीक इसी तरह प्रमाद के सभी भेद - प्रकार मोहनीय कर्म के २८ भेदों में समा जाते हैं । इसीसे प्रमाद और मोहनीय एक दूसरे के पर्यायवाची कहलाते हैं । आत्मविकास के मोक्षमार्ग पर अग्रसर जीव को अंशमात्र थोडा सा भी प्रमाद करना कैसे उचित लग सकता है ? ज्यों ही प्रमाद किया कि मोहनीय कर्म का पुनः बंध होगा । और यदि कर्म का बंध हो गया तो फिर उसे भी खपाना - नाश करना ही पडेगा । फिर कब नाश करेगा ? कहाँ करेगा ? हो सकता है कि उसके लिए यदि इस जन्म में अवकाश पूरा नहीं मिला तो आगामी जन्म में जाना पडेगा । फिर वही संसार की भव परंपरा चलती ९४० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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