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परपरिवाद
मायामषा
मिथ्यात्व
प्राणातिपात
मृषावाद
अदत्तादान
। योग
Etaite
५अव्रत
पारग्रह
के वेद मोहनीय कर्म के उदय में रहने के कारण जीवों में स्त्री का पुरुष के प्रति आकर्षण, पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण, तथा नपुंसक का उभय के प्रति आकर्षण रहता है । १८ पापस्थानों में से १० वे राग के सेवन के साथ इन वेदमोहनीय कर्म का भी बंध-उदय होता रहता है। भेदक मोहजाल
इस तरह मोहनीय कर्म की चारों तरफ की दिवाल जैसी मोहजाल
बिछी हुई है। मोहनीय - मैथून ।
मछुए-मच्छीमार नदीतालाबों में मछलियाँ पकडने के लिए चारों तरफ जाल बिछाता है। चारों
तरफ जाल होने से मछली छूट नहीं सकती, बच नहीं सकती। और ऊपर से जाल के साथ लुभानेवाला, खाद्य पदार्थ कांटे में फसाकर लगाया जाता है। जिससे मछली खींची जाय और खाने जाते ही जाल में फस जाय । ठीक इसी तरह ऐसा ही मोहनीय कर्म भी है । १८ पापस्थानों की जाल हमारे चारों तरफ बिछी हुई रहती है। मछली की तरह जाल में फसे हुए सभी जीव इसी में घिरे हुए रहते हैं । संसार तो आखिर संसार ही है । जीव संसार में रहे और १८ पापस्थानों से बचे यह लगभग नामुमकिन जैसा है। और किसी न किसी पापस्थान में जीव फसा कि तुरंत मोहनीय कर्म का नया बंध होता ही रहेगा। पुराना-पूर्वकालीन-भूतकालीन पिछले जन्मों का जो बंधा हुआ मोहनीय कर्म है, वह भी तो अपना अपना काल परिपक्व होने पर उदय में आता ही रहता है । और उदय में आने पर उदय जब जोर करेगा तब अनेक नए पाप करता हुआ जीव पुनः नए कर्म बांधता जाएगा। उसमें भी पापों में मुख्य रूप से मोहनीय कर्म ही ज्यादा बंधेगा और साथ-साथ अन्य ७ कर्म भी समय-समय पर बंधते ही जाएंगे। इसी कारण शास्त्रकार महर्षी कहते हैं कि- “समय-समय जीव७-७ कर्म बांधता ही रहता है ।" अतः यहाँ ७ कर्मों का बंध आयुष्य को छोडकर कहा है । अतः यह भी सिद्ध करता है कि मोहनीय कर्म तो बंधता ही है लेकिन साथ-साथ आयुष्य के सिवाय
अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना"
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