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________________ अशर्फियाँ निकालता था। अपने मुँह में लेकर वहाँ से दूसरी जगह जाता था और दूसरे पेड के नीचे रखता था । इस तरह किसी की रखी हुई-जमीन में छिपाई हुई सुवर्णमुद्राएं लोभवश चुराकर स्थानान्तर करने का पाप वह चूहा करता था। इस तरह समस्त संसार के सभी जीव कषायादि से ग्रस्त तो हैं ही । और उसके उदय में अभिभूत होकर पुनः वैसी प्रवृत्ति करते ही रहते हैं। नोकषाय मोहनीय कर्म की ६ प्रकृतियों में हास्य-रति-अरति-भय-शोकजुगुप्सादि हैं । यह भी मोहनीय कर्म की एक बड़ी दिवाल है । एक स्वतंत्र दिशा है । संसार के समस्त जीव इससे घिरे हुए हैं। इसके उदयवाले हैं। कभी हँसना, कभी रोना, कभी कुछ पसन्द आए, कभी अप्रिय लगे, कभी जीव भयभीत होता है, कभी शोक, खेद या विषाद की वृत्ति का अनुभव करता है। कभी दुर्गंच्छा-जुगुप्सा जागती है। इस तरह ये सभी मनुष्य के स्वभाव के साथ जुड़ गए हैं । अतः इनका सेवन करने की सब की आदत ही बन चुकी है। अब रोज इसका सेवन करना और रोज ही उसके सेवन से पुनः नए कर्म उपार्जन करते रहना यह जीव की आदत ही बन गई है। इतना ही नहीं इन हँसने-रोने भय-शोकादि की प्रवृत्ति करते रहने से पुनः मूल कषाय में भी प्रवेश हो जाता है । अतः नोकषाय तो मूल कषायों को भडकानेवाले–मदद करनेवाले (सहायक) हैं । बिना कारण किसी के सामने देखकर यदि आप हँसे तो सम्भव है कि सामनेवाले को क्रोध भी आ जाय। इसी तरह भय से भी क्रोध जग जाता है। रति-अरति तो क्षण-क्षण सदा ही कषाय करानेवाले कर्म बंधानेवाले हैं। दूसरी तरफ जैसा कि आपने पीछे चित्र में देखा है उसके आधार पर यह भी कहना है कि- ये हास्यादि नोकषाय १८ पापस्थानों में से नए पाप भी उपार्जन करते हैं । १२ वाँ कलह का पाप, इसी तरह १३ वें अभ्याख्यान में आक्षेप-आरोप करना, १४ वे में चाडी-चुगली खाने की पैशून्य वृत्ति का पाप, १५ वे पाप में रति-अरति के कारण पसंद नापसंद, अच्छा बुरा लगना आदि है । १६ वे में पर-परिवाद निंदा टीका-टिप्पण का भी पाप हैं। ये पाप हास्यादि नोकषाय के कारण होते रहते हैं। जीव करते ही रहते हैं। पुनः उनसे नए कर्मों का बंध होता ही रहता है । फिर उनका उदय होगा और जीव उनमें फसता ही जाएगा। इस तरह संसार चलता ही रहता है। . अब मोहनीय कर्म का अन्तिम विभाग वेद मोहनीय कर्म का है। यहाँ वेद शब्द कर्म शास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । यहाँ वेद शब्द स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के रूप में प्रयुक्त है । जिसका सीधा अर्थ विषय-वासना काम संज्ञा के अर्थ में है । इस प्रकार ९३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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