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________________ बनाकर भी ठगने की बात करता है । पत्नी पति के ही जेब में से पैसे निकालकर, या फिर सब्जी लाने के लिये दिये हुए में से ही सही बचाकर इकट्ठे करके अपना कार्य साधती है। ठंडा-मीठा बोलकर किसी को दिन दहाडे ही ठगने की प्रक्रिया करती है । लोभ कषाय कोई कम थोडा ही है ? आखिर यह भी तो मोहनीय कर्म का ही पुत्र है। सबसे ज्यादा नुकसान करनेवाला यही है । अपनी लोभवृत्ति जितनी कम-ज्यादा रहती है उसके आधार पर वह जीव दूसरों को लूटेगा। लोभवश चोरी भी करेगा। लोभ के ही आधार पर दुकानदारी चलती है यह भी कुछ कम नहीं है । सीधा ही जाकर मन पर अपना कब्जा जमा लेता है । और फिर भिन्न-भिन्न प्रकार की इच्छाएं कराता रहता है । आखिर राग के घर का है। संसार मोहमाया का ही है। संसार के असंख्य पदार्थ प्राप्त करने का तीव्र लोभ इच्छाओं के रूप में प्रकट होता है । इच्छाएं विचारणात्मक हैं । और विचार करना यह मन का कार्य है । अतः इच्छाओं का सारा कार्य मन के नाम पर चढ गया । इसलिए व्यावहारिक भाषा में लोक ऐसा कहते हैं कि मन इच्छा करता है । इच्छाएं तो मन के आधीन हैं । मन ही उनका जनक है । लेकिन वास्तविकता कुछ अलग ही है । इच्छाएं मोहजन्य हैं । मोहनीय कर्म में सत्ता में पडे हुए लोभादि की तीव्रता के आधार पर इच्छाएं बनती और बढती हैं। मन बिचारा तो जड है, वह क्या इच्छा करे? वह तो साधन-माध्यम मात्र है । मन ज्ञानात्मक नहीं है । अतः वह इच्छा पैदा भी नहीं कर सकता है । इच्छा ज्ञानात्मक है । अतः आत्मा में से ही उत्पन्न होती है। लेकिन आत्मा पर जो मोहनीय कर्म का आवरण लगा हुआ, स्तर जमा हुआ है उसके कारण ज्ञान मोहनीय के आवरण में से पनपता है उसमें से इच्छाएं जन्मती हैं। साफ है कि इच्छाएं ज्ञानात्मक हैं । मात्र पानी में रंग, या धागे पर रंग की तरह उस ज्ञानात्मक विचारों पर राग-द्वेष का रंग चढ गया है। लोभादि की असर है अतः वह विचार इच्छात्मक लगता है। मन तो मात्र विचार कराने में सहायक साधन-माध्यम बनता है। ___ यदि इच्छाओं के पीछे जनक मात्र मन ही कारण रूप होता तो तो हम मन को ही खतम कर देते और इस संसार में जो जीव बिना मन के होते हैं उनको तो इच्छा जगती ही नहीं है। लेकिन कषाय मोहनीय के लोभादि सबकी उपस्थिति यथावत् ही है। अतः सामान्य छोटे कृमी आदि जो जीव हैं उनको भी तो भारी मात्रा में लोभ होता है । जो बिना मन के हैं । चूहा जिसको मन है लेकिन वाचा क्या व्यक्त करे? विचार तन्त्र तो चालु है। लेकिन व्यक्त करने के लिए वाचा कहाँ है ? फिर भी वह जीव लोभवश होकर चोरी आदि तो करता ही है। एक बार जंगल में एक चूहा एक वृक्ष के नीचे के बिल में से सोने की अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९३७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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