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________________ संसार में पुण्य-पाप की कोई क्रिया-प्रवृत्ति कुछ भी नहीं है । और धर्म-कर्म तो सब निरर्थक बवंडल है। यह तो सब ढकोसला है। और लोक-परलोक जैसा कुछ है ही नहीं । किसने कहा कि जीव आता है और जाता है ? नहीं, यह सब हंबक बाते हैं । निरर्थक बकवास हैं । इस तरह मिथ्यात्व का प्रलाप अनेक प्रकार की भाषा बोलता है । उन्माद की मस्ती है । यह मिथ्यात्व के उदय भाव का नाटक है । मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय होने पर मन उस कर्मांश को विचार और वचन के माध्यम से जगत के सामने अपने खुद का मिथ्यात्वी स्वरूप प्रकट करता है। दूसरा विभाग मूल कषाय मोहनीय का है । यह क्रोध-मान-माया तथा लोभादि के रूप में है। क्रोध-मान ये दोनों द्वेषात्मक हैं, तथा माया-लोभ ये रांगात्मक हैं। यह अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय तथा संज्वलन की दृष्टि से काल की अपेक्षा से चारों प्रकार के हैं । इस तरह क्रोधादि ४x अनन्तानुबंधी आदि ४ = १६ प्रकार होते. हैं । जीव जब भी मूल कषाय मोहनीय कर्म के उदय के आधीन होता है तब उसके उदय में क्रोध करता हुआ क्रोधी, मान-अभिमान की बातें करता हुआ अभिमानी घमण्डी बनता है। मायावी-छल कपट करनेवाला ठगी बनता है । लोभ कषाय मोहनीय के उदय में आते ही जीव लोभी लालची बनता है । दुनियाभर की सब चीज-वस्तुएं मुझे मिल जाय ऐसी तीव्र इच्छा होती जाती है । प्राप्ति की उत्कण्ठा बढती रहती है । क्रोधी अपने क्रोध को व्यक्त करते हुए बोलता है कि मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता हूँ ? मेरे सामने तो तुम मच्छर भी नहीं हो । क्या समझते हो? तुमको मैं क्षणभर भी आँखों के सामने देख भी नहीं सकता। मैं तुम्हें खतम कर दूंगा । या फिर गाली गलौच-अपशब्दों की झडी बरसाता है। मानी–अभिमानी मान कषाय के उदय में होने पर-सातवें आसमान में चढकर कुछ हवाई बातें ही करता है- “हमसे जो टकराएगा वह मिट्टी में मिल जाएगा।" इस विचार में मान के साथ क्रोध का मिश्रण साफ दिखाई देता है। अरे ! मैं कौन हूँ ? क्या मुझे पहचानते हो? तुम क्या समझते हो मुझे? मैं घड़ी के छठे भाग में अभी तुम्हें छट्ठी का धावण याद करा देता हूँ ? अरे ! तुम्हारी नानी याद आ जाएगी। मेरे से बात करने से पहले जरा सोच-समझकर बोलना, ध्यान रखना इत्यादि मोहनीय कर्म के मान कषाय की गंध बोलनेवाले की भाषा में स्पष्ट दिखाई देती है। __मायावी बिल्कुल Cold poision जैसा है । ठंडा एवं धीमा जहर Slow poision जैसा है। ऐसा इन्सान मीठा-मीठा बोलकर किसी को विश्वास में लेकर अपना स्वार्थ साधने की बात सोचता है। मायावी संबंध जोडकर किसी को संबंधी बनाकर या मित्र ९३६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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