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३, २) मूल कषाय क्रोधादि १६, ३) नोकषाय मोहनीय में-हास्यादि ६, तथा ४) वेद मोहनीय में स्त्री-पुरुषादि के प्रति आकर्षण रागादि भाव जागता है।
३ + १६ + ६ + ३ = इस तरह ४ विभागवाले मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ है । बहुत ज्यादा लम्बे प्रमाण में बांधी हुई आत्मा में पड़ी है। उनका उदय भी होता ही रहता है। परिणामस्वरूप मन वहाँ से मोहनीय कर्म के उदितांश को ग्रहण करता है । यह राग + द्वेषात्मक होता है । ज्ञानमिश्रित होता है । अतः जैसे स्वच्छ शुद्ध पानी में लाल-हरा पीला रंगादि डालकर वैसा लाल-पीला बनाया जाता है फिर वह वैसा ही दिखता है, उसी प्रकार का लगता है । ठीक उसी तरह आत्मा का ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के कारण अधिकांश आच्छादित हुआ रहता है । उसमें से अज्ञान प्रकट होता है । आत्मा के अनेकविध गुण हैं। जैसा ज्ञान गुण है ठीक वैसा ही वीतरागता का भी गुण है। ज्ञानावरणीय कर्म के आवरण के कारण आत्मा का ज्ञान आच्छादित हो जाता है, ठीक उसी तरह मोहनीय कर्म के आवरण के कारण वीतरागभाव का गुण भी आच्छादित हो जाता है
और विपरीत रूप से राग + द्वेषात्मक स्थिति बन जाती है । बस, अब राग-द्वेषात्मक विचार ही ज्यादा प्रकट होते रहते हैं। जैसे एक धागा सीधा-सफेद चलता है उस पर लाल-पीला रंगादि चढाया जाय तो कैसा लाल-पीला बनता है, ठीक उसी तरह ज्ञान के विचार पर मोहनीय कर्म अपनी प्रकृति का अंश चढाकर रागात्मक द्वेषात्मक बना देता है। अब जीव उन विचारों को वचन के रूप में जब बाहर फेंकता है तब बोलनेवाले के वचनों को सुनते समय उसके विचारों में रही हुई राग की गंध, द्वेष की गंधादि सब साफ स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे पानी पर लाल-पीलापन दिखाई देता है, धागे पर भी दिखाई देता है । ठीक उसी तरह आत्मा का राग-द्वेषात्मक भाव सब स्पष्ट दिखाई देता है। आखिर राग द्वेष या क्रोधादि सब क्या है ? ये भी विचारात्मक ही तो हैं । विचारात्मकता का अर्थ ज्ञानात्मक है । वेदनादि ज्ञानात्मक नहीं होते हैं, अनुभवात्मक होते हैं। जबकि आत्मा के ज्ञान-राग-द्वेषात्मकादि ज्ञानात्मक होते हैं। .
मोहनीय कर्म में जो कषायादि४ विभाग मुख्य हैं उनमें से सबकी असर भिन्न-भिन्न है । दर्शन मोहनीय कर्म का मिथ्यात्व का विभागजब उदयस्थिति में विचारों में व्यक्त होता है तब उस व्यक्ति की बोल-चाल की भाषा में अज्ञानता विपरीत एवं विकृतज्ञान प्रकट होता है उसे मिथ्याज्ञान-मिथ्यात्व कहते हैं। फिर तो व्यक्ति उन्माद की तरह बोलता है। बस, दुनिया में आत्मा-परमात्मादि कुछ भी नहीं है। मोक्ष जैसा कुछ है ही नहीं। और स्वर्ग-नरक जैसी तो कोई बात ही नहीं है । पुण्य-पाप का तो कोई सवाल ही नहीं है।
अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना
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