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________________ 1 आखिर विचारों में भी है क्या ? ज्ञान ही है । जड मन ज्ञान कहाँ से लाएगा ? मन में तो कोई ज्ञान है नहीं । क्यों कि वह तो सर्वथा जड है। ज्ञान जड का गुण नहीं है। ज्ञान चेतनात्मा का ही गुण है । व्याप्ति का नियम सिद्धान्तरूप में यही है कि जहाँ जहाँ ज्ञान हो वहाँ वहाँ ही आत्मा रहती है तथा जहाँ जहाँ आत्मा रहे वहाँ वहाँ ज्ञान रहेगा। इस तरह आत्मा ज्ञानरहित तथा ज्ञान आत्मा के बिना कभी भी कहीं भी रह ही नहीं सकते हैं । जैसे सूर्य के साथ उसकी किरणें - प्रकाशादि रहता है ठीक उसी तरह उभय व्याप्ति से आत्मा के साथ ज्ञान रहता है । अब यह भी सोचिए कि... जड मन के विचारों में ज्ञान आया कहाँ से ? मन में तो ज्ञान है ही नहीं । अतः यह सूक्ष्म मन विचारों के लिए आत्मा का सहायक बनता है | चेतन द्रव्य से संयोग करके वहाँ से ज्ञानांश को उठाता है और विचार प्रवाह में मन अपनी सतह के पटल पर लाता है । और बाद में विचार तन्त्र से भाषा प्रयोग के द्वारा व्यक्ति वचन के माध्यम से अपने कण्ठ ताल्वादि के आस्य प्रयत्न द्वारा उन्हें अपने मुँह से बाहर फेंकता है । इसके लिए आत्मा को भाषावर्गणा के सूक्ष्म पुद्गल परमाणु ग्रहण करने पडते हैं और बाद में उन्हें भाषा के रूप में परिणमन करके बाहर फेंकती हैं। 1 1 मन आत्मा के ज्ञान को जब ग्रहण करता है तब आत्मा पर ज्ञानावरणीय कर्म की परत जमी हुई रहती है। अतः वहाँ से जिस अंश में जितना ज्ञान प्रकट रहता है क्षयोपशम भाव से, बस, उतने में से वर्तमान काल में उतने ज्ञानांश को ग्रहण करके उसे विचाररूप में परिणत करके-यदि वचन द्वारा बाहर किसी अन्य को देना हो तो भाषा वर्गण के पुद्गल परमाणु ग्रहण करके उन्हें भाषा के रूप में व्यवहार करने के लिए भाषा बोलता है । यह समस्त क्रिया इतनी सूक्ष्मतम है और इतनी ज्यादा त्वरा से होती है कि उसकी शीघ्रता का अंश मात्र भी ख्याल ही नहीं आता है । वेदनीय ज्ञानावरणीय जैसे मन आत्मा के ज्ञान खजाने में से ज्ञानांश लेकर आता है ठीक उसी तरह आत्मा पर ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीयादि ८ कर्म हैं । इन आठों प्रकार के कर्मों में मोहनीय कर्म सब कर्मों का राजा है । शक्तिशाली बडा है। अतः मन मोहनीय कर्म पर भी भौरे की तरह बैठता है । और पराग कण जैसे ग्रहण करता है, वैसे इन विविध कर्मयुक्त आत्मप्रदेशों पर बैठकर ग्रहण है । आत्मा ८ कर्मों में जो मोहनीय कर्म है उसके ४ मुख्य विभाग हैं- १) दर्शन मोहनीय में - मिथ्यात्वादि 1 'आध्यात्मिक विकास यात्रा तोत्र कर्म ९३४ आयुष्य Billest! मोहनीय कपाय मोहनीय मोह मोहनीय नोकनाथ दर्शनावरणीय मोहनीय 地址 अंतराय
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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