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आंदारिक
वैक्रिय
आहारक
> तैजस
कार्मण
भाषा
चेतन ही करता है । जैसे कि बनाए शरीर का उपयोग क्रिया-प्रवृत्ति के रूप में करता है। श्वास लेना - छोडना और उसपर आयुष्य निर्भर करता है । इसी तरह भाषा वर्गणा के पुद्गल परमाणु ग्रहण करके उसके द्वारा बोलना - वचन प्रयोग करने का काम करता है । लेकिन बिना मन के सोचे विचारे बिना क्या बोलेगा ? बोलने में
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विचार क्या और कैसे रहेंगे ? क्या बिना विचार किये बोल पाएगा? और यदि बोलेगा भी तो उसमें ज्ञान या विचार की कोई गंध नहीं आएगी। जी हाँ, बिना मन के भी जीव बोलता तो है ही । जैसे मेंढक भी ड्राअं ड्राअं बोलता है लेकिन उसका क्या अर्थ होता है ? वह क्या बोलना चाहता है ? उसका क्या पता चले ? परन्तु मनुष्य जब बोलता है तो सोच-समझकर स्पष्ट बोलता है, जिसे सुनकर हर्ष - शोक आदि सब हाव-भाव प्रकट होते हैं । उसके विचार, विचारों के साथ ज्ञान बरोबर प्रकट होता है। सुननेवाले को स्पष्ट ख्याल आता है कि वह क्या कह रहा है ? क्या कहना चाहता है ? अतः मनःपर्याप्तिवाला पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव मनोवर्गणा को ग्रहण करके मन बनाता है। याद रखिए, मन चेतन आत्मा नहीं है और न ही आत्मा मन है । मन जड है। आत्मा चेतन है । इसलिए मन को चेतनात्मा कहना या चेतनात्मा को मन कहना सबसे बडी मूर्खता होगी । ऐसा कहनेवाले या करनेवाले दर्शन, शास्त्र या धर्म, पंथ, गहरे सत्य, ज्ञान के अभाव में अज्ञानवश यह मूर्खता करते हैं । उनकी ज्ञानधारा विचारधारा शुद्ध नहीं है ।
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* अब यह बनाया हुआ मन आत्मा के साथ देह में ही रहता है। दोनों आधेयभूत पदार्थों के रहने के लिए आधारभूत क्षेत्र तो शरीर ही है। मन आत्मा के अत्यन्त समीप है । मनोवर्गणा के पुद्गल परमाणु ग्रहण करके बनाया हुआ पिण्डात्मक यह द्रव्य मन है । जबकि भाव मन तो विचारात्मक है । जब हम विचार करते जाते हैं तब द्रव्य मन बनता जाता है और भाव मन के रूप में खर्च - विलीन होता जाता है। इस तरह प्रतिक्षण मनोवर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करना खींचना, पिण्डरूप बनाकर द्रव्य मन बनाना और विचार करके भाव मन के रूप में उसे समाप्त कर देना । इस तरह निरंतर यह क्रिया करते ही रहना पडता है ।
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अप्रमत्तभावपूर्वक “ ध्यानसाधना "
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