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इस तरह पहाडों की गुफाओं में रहकर साधना करनेवाले अवधूत योगी आनन्दघनजी का मन के बारे में एक संवाद है, भगवान के साथ किया हुआ एकरार है। अपनी साधना के भीतर क्या क्या हुआ? मन के संघर्ष के साथ कैसी बातें हुई? उसका मानस चित्र उपस्थित किया है । इससे मन की चंचलता-चपलता का गहन स्वरूप स्पष्ट होता है। इसी कारण मन साध्य होना बहुत ही कठिन हो चुका है। अतः धर्मशास्त्र में धर्माराधना का जितना भी क्रियात्मक स्वरूप दर्शाया गया है वह सब मन की निर्मलता बढाने, मन को लगाने के लिए है। जिससे मन लगे तो ही सामायिकादि धर्माराधना सार्थक सफल हो सके। मनकी चंचलता का मूल कारण
हमने सबने व्यावहारिक रूप से यही मान रखा है कि मन चंचल-चपल है। लेकिन सत्य तो यह है कि मन सर्वथा जड है। और जड कभी चंचल-चपल होता ही नहीं है। मनोवर्गणा के जड पुद्गल परमाणुओं का संचय करके चेतन जीवात्मा ने सोचने-विचारने के लिए मन बनाया है। यद्यपि सूक्ष्म है, लेकिन जड है, अचेतन है। अतः चंचल-चपल बनने या होने का कोई कारण–प्रयोजन कुछ भी नहीं है।
फिर भी चंचलता का आरोपण व्यवहार नय से मन पर ही होता है। लेकिन इसकी गहराई में उतरने पर रहस्य का पता लगता है।
चेतनात्मा मूलभूत सजीव द्रव्य है । यही स्वकृत कर्मानुसार गर्भस्थान में जन्म लेने के लिए पहुँचती है । गर्भप्रदेश में रहा हुआ जीव अष्टमहावर्गणाओं को आवश्यकतानुसार ग्रहण करता है । और उसी को शरीर, श्वास, भाषा, मन, कर्मादि रूप में परिणमाता है । उसी से शरीर, इन्द्रियाँ, श्वास, भाषा, मन तथा कर्म बनते हैं । फिर प्रत्येक का उपयोग कर्तारूप
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आध्यात्मिक विकास यात्रा