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दृष्टा भाव से देखा पहचाना जा सकता है । अन्यथा संभव ही नहीं है। जैसे समुद्र की गहराई में रहनेवाली मछली ऊपरी सतह की लहरों को कैसे पहचान पाएगी ? शान्त सरोवर के स्थिर जल में जैसे ही बाहर से एक कंकड आकर गिरता है वैसे ही सरोवर की शांति और स्थिर पानी की स्थिरता भंग हो जाती है । बस, अब अशान्ति और अस्थिरता ही प्रधानरूप से रहेगी । परिणामस्वरूप पानी में वमल पैदा हो जाएंगे। और ये वमल एक दिशा में नहीं लेकिन चारों दिशा में गोलाकार स्थिति में फैलते-फैलते किनारे की तरफ पहुंचते जाएंगे ।
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ठीक वैसी ही स्थिति मन की भी है। आप ध्यान साधना में भारण्ड या चील पक्षी की तरह ऊपर उठिए, कुछ ऊपर उडिए ... फिर दूर दूर से आत्मस्थिति में निमग्न रहकर इस मन को दृष्टाभाव से देखते रहिए । देखते-देखते आप अच्छी तरह मन की वास्तविकता से परिचित हो जाओगे । बस, एक क्षणमात्र भी आप विचलित हुए नहीं कि दूसरा अनावश्यक विचार का एक कंकड आपके ध्यान सरोवर में गिर जाएंगा। उस विचाररूपी कंकड की राग- -द्वेषात्मक आहतों से स्थिरतारूपी ध्यानजल की शान्ति भंग हो जाएगी । और उठी हुई विचारों की लहरें आपके मन में सर्वत्र बिखर जाएगी। फैल जाएगी। मन के प्रत्येक प्रदेश को छूएगी । परिणामस्वरूप पूरी शान्ति भंग हो जाएगी । स्थिरता तूट जाएगी । विचार पुनः मन पर हावी हो जाएंगे। ऐसा विचारों का आन्दोलन मन को घेर लेगा । बस, जहाँ आत्मा की पक्कड तूटी नहीं कि मन विचाररूपी तूफानों के वमल में चारों तरफ से घिर जाएगा। फस जाएगा। बस, फिर तो आपका ध्यान सारा चौपट हो जाएगा।
इसीलिए कभी मन की वर्तमान राग- -द्वेषात्मक विचारधारा से ऊपर उठिए । स्थिर बनिए। भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त बनिए। और दूर से अपने मन को देखने की पूरी कोशिश करिए । मन की सच्चाई - वास्तविकता का पूरा अच्छी तरह परिचय होगा । ऐसे अनुभूत योगी आनन्दघनजी भगवान के पास थककर, और हार मानकर घुटने टेककर बैठ गए हैं। और मन की यथार्थ स्थिति का परिचय देते हुए साफ-साफ शब्दों में स्पष्ट कह रहे हैं - हे प्रभु ! हे कुंथुनाथ भगवान ! कितने ही उपाय करने के बावजूद भी यह मन किसी भी तरह नहीं मानता है । किसी भी तरह वश में - हाथ में नहीं आता है ? क्या करूँ ? जैसे जैसे और ज्यादा - ज्यादा प्रयत्न करके उसे पकडने जाता हूँ अर्थात् समझाने जाता हूँ, वैसे वैसे वह दूर ही दूर भागता जाता है । हे प्रभु, मैं परेशान हो चुका हूँ । अरे ! इस मन के लिए आने-जाने के क्षेत्र में कहीं कोई सीमा का प्रतिबंध ही नहीं है। रात में
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अप्रमत्तभावपूर्वक " ध्यानसाधना "
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