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________________ भी भागता है और दिन में भी भागता है । ऐसा नहीं है कि हमारे सोने पर यह मन भी सो जाये । जी नहीं। यह शरीर सोता रहता है, परन्तु मन तो कहीं का कहीं भागता ही रहता है। अरे ! बसतिवाले क्षेत्र शहर में भी जाता है और जंगल में उज्जड प्रदेश या रणप्रदेश में भी उतना ही भागता है । अरे रे ! यह तो आकाश में स्वेच्छा से स्वैर विहार करता है। और पाताल में भी भाग जाता है। कोई सीमा ही नहीं है। सचमुच मन की गति अकल है। जैसे किसी को साँप काटा, साँप ने खाया, परन्तु साँप के मुँह में क्या कोई कवल आया? क्या साँप का पेट भरा? जी नहीं, साँप खाकर मात्र बदनाम हुआ, लेकिन उसका पेट नहीं भरा । कुछ भी नहीं पा सका। इस न्याय की तरह मन भी सोचकर जाकर प्रधानमंत्री-राजा बनकर तो आ जाता है लेकिन दूसरी ही क्षण जैसे ही अन्यत्र भागा कि उस मन के हाथ में क्या आया? उसे मिला क्या? बस, फिर वैसा ही कोरा रह जाता है। __ हे कुंथुजिन ! क्या कहूँ इस मन के बारे में ? अरे ! इस मन को जीतने, वश में करने के लिए मोक्ष की अभिलाषावाले कई महात्माओं ने तपश्चर्या की, अभ्यास करके ज्ञान प्राप्त किया और कोई साधक आगे बढकर जाप से ध्यान में आगे बढा, कोई योगी बना, लेकिन जैसे-दुश्मन वार करने के लिए मानों ऊपर गिरता है, उसी तरह यह मन दूसरी ही क्षण उस साधक को उल्टा फेंक देता है। प्रसनचंद्र राजर्षि को सातवीं नरक तक पहुँचाने की कोशिश करता है। वहीं साधक केवलज्ञान भी पा जाता है। अतः सच ही कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः । यह मन ही मनुष्यों के लिए बंध और मोक्ष दोनों का कारण बनता है । हे कुंथुनाथ भगवान ! कोई कहता है कि आगम-शास्त्र पढने से मन को वश करने का उपाय प्राप्त होता है। लेकिन ! अफसोस इस बात का है कि आगमधर महापुरुष भी जब आगमशास्त्र हाथ में लेकर पढते थे, बैठते थे, तो क्या उतनी देर तक भी यह मन वश में रहता था? जी नहीं? और कहीं यदि हठ-हठाग्रह-हठयोग का आश्रय लेकर जबरदस्ती भी करूं तो यह साँप की तरह वक्र ही रहता है । सचमुच इस मन को यदि ठग कहता हूँ, तो यह मात्र ठग भी नहीं दिखाई देता, क्योंकि मन तो पीछे है और इन्द्रियाँ आगे हैं। अतः कौन ठग है ? मन या इन्द्रियाँ ? लेकिन इन्द्रियों को प्रेरित करनेवाला भी मात्र मन ही है । और यदि इस कारण मन को मात्र साहुकार कहूँ तो वह भी उचित नहीं लगता है। इसलिए या तो नारदी वृत्तिवाला बिल्कुल नारद जैसा लगता है मन । और सब में रहकर भी सबसे भिन्न–अलग भी रहता है । यही सबसे बडा आश्चर्य ९३० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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