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________________ ॥३॥ हो गया। स्थिरता के कारण ध्यान या ध्यान के कारण स्थिरता? क्या बिना स्थिरता के ध्यान प्रारंभ होगा? या क्या ध्यान के बिना स्थिरता आएगी? मन के विषय में आनन्दघनजी योगी का वक्तव्य मनडुं किमही न बाजे हो कुंथुजिन, मनईं किमही न बाजे। जिम जिम जतन करीने राखं, तिम तिम अलगुंभाजे ॥१॥ रजनी वासर वसति उज्जड़ गयण पायाले जाय। . . साप खाय ने मुखडं थोथु, एह उखाणो न्याय ॥२॥ मुगति तणा अभिलाषी तपीया ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे। वैरीडु कांइ एहवं चिंते, नाखे अवले पासे 'आगम आगमधरने हाथे, नावे किणविध आंकुं। किहां कणे जो हठ करी हटके, तो व्यालतणी परे वांकुं . ॥४॥ जो ठग कहुं तो ठग तो न देखुं, शाहुकार पण नांहि। . सर्वमाहे ने सहुथी अलगुं, ए अचरिज मनमाहि . ॥५॥ जे जे कहुं ते कान न धारे, आप मते रहे कालो। सुर नर पंडितजन समजावे, समजे न माहरो सालो ॥६॥ में जाण्यं ए लिंग नपुंसक, सकल मरद ने ठेले। . बीजी वाते समर्थ छे नर, एहने कोइ न जेले . . ॥७॥ मन साध्युं तेने सघलु साध्यु, एह वात नहिं खोटी। इम कहे साध्युं ते नवि मार्नु, एक ही वात छे मोटी ॥८॥ मनडुं दुराराध्य तें वश आण्यु, ते आगमथी मति आणूं। आनंदघन प्रभु माहरू आणो, तो साचुं करी जाणुं ॥९॥ - आनन्दघनजी जैसे गुफाओं में रहनेवाले अवधूत योगी मन की चंचलता और चपलता का परिचय देते हैं । या तो ऐसा मानिये इस स्तवन के बहाने वे अपने ही मन की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं? जी हाँ । बात भी सही है। एक योगी-ध्यानी साधक ही मन का परिचय दे सकता है। वही पहचान सकता है। बिना उसके कोई नहीं पहचान पाएगा। संसार का भोगी जो सदा-सदैव ही भोग के आधीन रहता है, भोग का गुलाम बनकर रहता है वह क्या उसे पहचान सकेगा? मन से ऊपर उठकर ही मन को स्वस्थ .९२८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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