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________________ के लिए ध्यान की तीव्रता का दो घडी का भी काल पर्याप्त है । इसमें कोई संदेह नहीं है। फिर भी जब ध्यान की ही धारा स्थिर न रह सके तो क्या करना? दो घडी का भी काल अधिक लगता है । बस, इसके बीच में ही ध्यान की धारा तूट जाती है । मन की स्थिरता बदल जाती है । अस्थिर मन पुनः प्रमाद की तरफ पतित कर देता है । मुँह मोडकर वह वापिस पतनोन्मुखी बन जाता है । ऐसी स्थिति में गिरना भी स्वाभाविक है। सबसे कठिन स्थिरता योगशास्त्र में योगदर्शन में स्थिरता को ही सर्वोत्कृष्ट कक्षा की मानी है । जी हाँ, ध्यान प्रारंभ करना भी काफी आसान है, थोडी देर तक ध्यान की धारा में आगे बढना भी संभव है, परन्तु अब प्रश्न आता है स्थिरता का। मन को अनन्त काल से चंचलता-चपलता के संस्कार लगे हुए हैं। मानों ऐसा ही कहिए कि चंचलता-चपलता ही मन की अपर पर्याय बन चुकी है । मन हो और चंचल चपल न हो यह संभव नहीं लगता । तथा चंचल और चपल न हो वह मन हो ऐसा भी संभव नहीं लगता है । यद्यपि ऐसी व्याप्ति नहीं बैठती है, फिर भी उपलक्षण से मन की अत्यन्त ज्यादा-हद से ज्यादा चंचलता-चपलता होने. के कारण व्याप्ति का नियम लागू न होने पर भी वैसा कहा जा सकता है। फिर भी जहाँ जहाँ धुंआ होता है वहाँ वहाँ अग्नि निश्चित रूप से होती ही है ऐसा निर्विवाद कहा जा सकता है परन्तु जहाँ अग्नि है वहाँ धुंआ रहे ही ऐसा निश्चयात्मक निर्विवाद नहीं कहा जा सकता। इसलिए अग्नि हो वहाँ धुंआ रहता भी है और नहीं भी रहता है ठीक उसी तरह अत्यन्त ज्यादा चंचलता-चपलता हो वहाँ मन जरूर ही रहता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । लेकिन जहाँ भी मन रहता है वहाँ चंचलता-चपलता रहती ही है ऐसा जकारपूर्वक कहना उचित नहीं होगा। क्योंकि योगी, ध्यानी जैसे साधक के भी तो मन अनिवार्य रूप से होता ही है। परन्तु जब ध्यान साधना में मन स्थिर कर दिया जाता है, तब वह चंचल नहीं रहता है । चपलता नहीं रहती है । ध्यान की धारा में मन स्थिर रूप से लगा रहता है । अतः चंचलता-चपलता के बिना भी मन रहता है। फिर भी हम इतने ज्यादा बेहद चंचल-चपल हो चुके हैं कि मानों ऐसा लगता है कि मन तो बस, चंचल-चपल ही होता है । व्यक्ति सबसे ज्यादा परेशान किससे है ? अन्य किसी से नहीं, लेकिन अपने मन की अस्थिरता चंचलता-चपलता के कारण । चंचल और चपल यह मन किसी भी तरह स्थिर रहता ही नहीं है तो फिर ध्यान-योगादि की साधना करेंगे कैसे? और बिना स्थिरता के ध्यानादि आएगा कैसे? अब क्या करें? बडा भारी प्रश्नचिन्ह खडा अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" . ९२७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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