SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावक हो या साधु आखिर दोनों ही है तो मोक्षमार्ग के साधक—उपासक । अतः दोनों कर्मक्षय करने के लक्ष्य पर तो समान रूप से एक ही है। समानलक्षी जीवों की उसके अनुरूप समान प्रवृत्ति भी होनी ही चाहिये। इसलिए ५ वे गुणस्थान के मालिक श्रावक तथा छट्टे गुणस्थान प्रमत्त के मालिक साधु दोनों के लिए षडावश्यक की धर्माराधना समान रूप से आचारसंहिता में रखी गई है। अतः दोनों के लिए प्रतिक्रमण करना समान रूप से आवश्यक है । इसलिए अवश्य ही करने योग्य होने से उसे आवश्यक कहते हैं । कर्तव्य है । 1 घडी के लोलक जैसी स्थिति I दिवालों पर लटकती हुई घडियों को हमने बहुत देखा है । उसके नीचे जो लोलक लटकता रहता है, और सतत चलता ही रहता है उसे यदि ध्यान से देखें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि ... लोलक एक बार दाहिने हाथ की तरफ कुछ ऊपर जाता है, फिर थोड़ी ही देर में पुनः नीचे आता है । फिर थोडा बांए हाथ की तरफ ऊपर चढता है। और वापिस अपनी स्थितिस्थापकता पर आता है । इस तरह छट्ठे प्रमत्त गुणस्थान पर रहा हुआ प्रमत्त-प्रमादी साधु यदि ऊपर जाए तो सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर जाता है । लेकिन वैसी अप्रमत्तता बडी मुश्किल से थोडी देर टिक पाती है कि वहाँ से नीचे गिरता हुआ लोलक की तरह स्थितिस्थापकता के स्थान पर आने की तरह वापिस छट्ठे प्रमाद के स्थान पर आकर रुकता है । हो सकता है कि प्रमाद के छट्ठे गुणस्थान पर यदि स्थिर न रहे और अध्यवसाय यदि ज्यादा नीचे गिरे तो वह पाँचवें श्रावक के गुणस्थान पर भी जा सकता है, या उससे भी और नीचे ४ थे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर भी जा कर गिर सकता है । जी हाँ, द्रव्य से, बाह्य से वेष के कारण उसे छट्ठे गुणस्थानक के साधु कहना पडेगा लेकिन अध्यवसायों की धारा के आधार पर... ५ वे या ४ थे गुणस्थान पर भी जा सकता है। इस तरह लोलक की तरह स्थान परिवर्तन होता ही रहता है । 1 I क्योंकि सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर साधक की स्थिरता का काल मुश्किल से अंतर्मुहूर्त परिमित है । अंतर्मुहूर्त मात्र ४८ मिनिट दो घडी का होता है । और २ घडी बीतते क्या देर लगती है ? यद्यपि सच देखा जाय तो साधना के क्षेत्र में अप्रमत्त बनकर दो घडी अंतर्मुहूर्त काल तक भी ध्यान में स्थिर रह सके तो पर्याप्त है। निर्जरा का परिणाम लाने ९२६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy