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मँह बहाए अजगर सीधे ही उसे निगलने के लिए तैयार बैठे हैं। वैसे ही ये आठों कर्मरूपी अजगर जीव को निगलने के लिए तैयार ही बैठे हैं । अप्रमत्तभाव से जीव गिरा नहीं कि प्रमाद तैयार ही बैठा है । यह प्रमाद मोहनीय कर्म का भेजा हुआ दूत है । १३ काठियों का इसका स्वरूप बडा भारी है । इस दूत के सहायक सुभट ये १८ ही पाप मुँह बहाए तैयार हैं। और जैसे ही जीव इन १८ पापों की प्रवृत्तियों में फसा नहीं कि क्षणभर में आठों कर्म तैयार ही हैं चिपकने के लिए। और जैसे ही कर्म चिपके कि संसार जैसा अगाध भयंकर समुद्र भवपरंपरा बढाने के लिए तैयार ही है। इस तरह प्रमाद में गिरने से पापों की प्रवृत्ति और फिर पापों से पुनः प्रमादग्रस्तता फिर कर्मबंध और संसारचक्र का गतिमान होना यह क्रम अनादि अनन्त काल से चला ही आ रहा है।
आवश्यक की आवश्यकता.. आवस्सएण एएण सावओ जइवि बहुरओ होइ।
दुक्खाणमंत किरीअं काही अचिरेण कालेण ॥ ४१ ।। - वंदितु सूत्र में आवश्यक के विषय में कहते हैं कि ये जो षडावश्यक रूप प्रतिक्रमण है इनकी उपासना से यद्यपि श्रावक बहु आरंभ-समारंभ पापादि रत हो फिर भी वह कुछ ही काल में इन दुःखात्मक आरंभादिजन्य पापों का अन्त कर देता है । एक दृष्टान्त देते हुए उसे और स्पष्ट किया है
जहा विसं कुट्टगयं मंत-मूल-विसारया।
विज्जा हणंति मंतेहिं तो तं हवइ निव्विसं ॥ ३८ ॥ जिस तरह यदि अन्जान में जहर भी पी लिया हो, वह पेट में चला भी गया हो तो. ..कितनी जल्दबादी-स्फूर्ति करके निकालना पडता है ? उस समय मंत्र तथा औषधियों जडी-बूटियों आदि के प्रयोगों को जाननेवाले विशारद वैद्य या मन्त्रवादी उस विष को शीघ्र ही उतार देते हैं । निकाल देते हैं। उगलवा देते हैं। बस, इतने से ही विषपान करनेवाला निर्विष बन जाता है । ठीक उसी तरह- . .
एवं अट्टविहं कम्मं राग-दोस समज्जि। .. आलोअंतो अनिदंतो, खिप्पं हणइ सु-सावओ ॥३९ ।।
- जहर की तरह ही यदि राग-द्वेष से उपार्जित आठों ही कर्मों का जो बंध भी हो जाता है उन कर्मों की भी आलोचना तथा निंदा करनेवाला सुश्रावक शीघ्र ही उन पापों का-कर्मों का हरण कर लेता है। नाश करता है। अतः लक्ष्य एवं तदनुरूप प्रक्रिया कर्मनाश-कर्मक्षय करने की है।
अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना"
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