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अशाता वेदनीय कर्म के आश्रव में भी मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति कारण बनती है । आयुष्य कर्म में भी आयुष्य की बंधस्थिति में मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियाँ कारण बनती हैं। उदा. तिर्यंच गति का आयुष्य बंधाने में माया कषाय कारण बनता है । गति यह नाम कर्म का विभाग है । उसमें माया आदि कषाय के कारण तिर्यंच गति का बंध होता है । रौद्रध्यानपूर्वक अनन्तानुबंधी क्रोधादि कषायों के कारण नरक गति का बंध होता है । इस तरह मोहनीय कर्म के घर की प्रवृत्तियाँ हैं और उनके कारण जीव नाम - गोत्रादि अन्य सातों कर्म बांधता है । संसार की सब प्रवृत्तियों का मुख्य रूप से समावेश एक मात्र मोहनीय कर्म में हो जाता है | अतः इसे ही कर्मों का राजा कहा जाता है । सब कर्मों का मूलभूत कारणरूप है । मात्र मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियाँ अन्य सभी कर्मों का आश्रवभूत कारण बनती है । इसलिए मोहनीय कर्म का साम्राज्य बडा भारी है। इसकी प्रवृत्तियों से बचने पर अन्य कर्मों के बंधन से भी बचा जा सकता है ।
राग-द्वेष की निबिड ग्रन्थि
संसार में एक भी जीव ऐसा नहीं है जो राग- - द्वेष से ग्रस्त न हो। जैसे संसार में एक भी मछली ऐसी नहीं है जो पानी के बिना बाहर रह सके । प्रत्येक छोटी-बडी सभी मछली अनिवार्य रूप से पानी के साथ संबंधित है। जुडी हुई है। ठीक वैसे ही प्रत्येक संसारी जीव राग-द्वेष के साथ जुडा हुआ है । प्रमाण कम हो या ज्यादा हो लेकिन प्रत्येक छोटा-बडा सभी जीव कम-ज्यादा प्रमाण में राग-द्वेष के आधीन ही है । तभी यह संसारी कहलाता है और संसारी है इसलिए राग-द्वेष ग्रस्त हैं । अनादिकालीन इन राग-द्वेष के साथ जीव का संबंध है । हमारे परिणाम - जीवों के अध्यवसाय ही रागI - द्वेष की वृत्तिवाले हो गए हैं ।
राग
- द्वेष की तीव्रता के परिणाम की स्थिति यहाँ पर ग्रन्थि शब्द से द्योतित की गई है । जीवात्माएं ऐसी राग-द्वेष की गांठ से बंधी हुई रहती है । व्यवहारिक उदाहरण से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। हम कपडे सीते हैं उस समय रील के धागे में यदि गांठ आ गई तो धागा सूई में आगे नहीं बढेगा । रस्सी में भी गांठ आ सकती है या रस्सी बड़ी भारी गांठ लगाकर हाथी, ऊँट, घोडे को भी बांधा जा सकता है । इतने बडे भारी शक्तिशाली प्राणियों को भी एक रस्सी में गांठ लगाकर बांधा जा सकता है । अतः गांठ की मजबूती कितनी भारी रहती है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा