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इन मूल क्रोधादि कषायों में भी हल्के क्रोधादि और तीव्र क्रोधादि सब भिन्न-भिन्न प्रकार के होते ही हैं । उनमें भी ज्यादा तीव्रता कैसे, कहाँ से आती है ? एक क्रोधादि कषाय माँ अपने बच्चे पर करती है और वही माँ घर के नोकर पर भी क्रोध करती है । उस समय उसके क्रोध में कितनी ज्यादा तीव्रता होती है ? पडोसन के साथ जब एक स्त्री झगडने जाती है तब उस क्रोधादि कषायों में कितनी ज्यादा तीव्रता होती है ? इन सबसे ज्यादा जब मिथ्यात्व की वृत्ति होती है और उसमें जब क्रोधादि कषाय बढता है तब उसकी तीव्रता बडी भारी होती है । मिथ्यात्व की तीव्रता के साथ जब कषायों में भी तीव्रता आती है तब बन्ध की स्थिति अत्यन्त ज्यादा उत्कृष्ट कक्षा की होती है। अतः मोहनीय कर्म की इतनी लम्बी ७० कोडा-कोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बंधाने में मुख्य कारणभूत मिथ्यात्व बनता है । यदि मिथ्यात्व को मोहनीय कर्म में से निकाल दें तो .... मोहनीय कर्म की इतनी लम्बी उत्कृष्ट स्थिति बंधानेवाला और कोई कर्म नहीं बचेगा ।
मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति-सभी कर्मों के आश्रवभूत कारण
मोहनीय कर्म में मुख्यता- मिथ्यात्व तथा कषायों की है। साथ ही हास्यादि नोकषाय एवं विषय वासना संबंधी वेदमोहनीय कर्म भी हैं । इनमें कषायों की क्रोधादि की प्रवृत्ति के कारण ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, नीचगोत्र, वेदनीय, अशुभ पाप कर्मों का भी बंध होता है । आत्मा में कार्मण वर्गणा के परमाणुओं के आना - आगमन को आश्रव कहते हैं । विशेष रूप से जिस प्रकार की हम मन-वचन - काया से पाप प्रवृत्ति करते हैं और उससे जिन कर्मों का बंध होता है उसे आश्रव कहते हैं । जैसे दूध में शक्कर का आना यह आश्रव है और शक्कर का दूध में घुलकर एकरस बन जाना बंध है वैसे शुभाशुभ प्रवृत्ति से कार्मण वर्गणा के परमाणुओं का आत्मा में आगमन आश्रव है, और उनका आत्मा के साथ एकरसीभाव हो जाना बंध है ।
कषाय भाव में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि की प्रवृत्ति करना, हास्य - रति आदि की प्रवृत्ति करना, वेदमोहनीय में स्त्री-पुरुष की वासनाजन्य कामवासना की प्रवृत्ति तथा मिथ्यात्वादि की प्रवृत्ति । इन सब प्रवृत्तियों को जितने ज्यादा हम मन-वचन-काया से करते हैं इनके कारण ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय कर्मों का बंध ज्यादा होता है। इसी तरह अन्तराय कर्म के बंध में भी मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियाँ आश्रवरूप कारण बनती है । नाम कर्म की अशुभ पाप प्रकृतियों का बंध भी मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों से होता है । नीचगोत्र कर्म के आश्रव में भी मोहनीय कर्म की ही प्रवृत्तियाँ कारणभूत बनती हैं । तथा
सम्यक्त्वगुणस्थान पर आरोहण
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