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उत्कृष्ट-जघन्य भिन्न भिन्न प्रकार की बंधस्थिति तत्त्वार्थ सूत्रकार ने निम्न प्रकार की बताई
१) 'ज्ञानावरणीय कर्म की ३० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति २) दर्शनावरणीय कर्म की ३० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति ३) वेदनीय कर्म की ३० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति ४) अंतराय कर्म की ३० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति ५) मोहनीय कर्म की ७० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति ६) नाम कर्म की २० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति ७) गोत्र कर्म की २० कोडा कोडी सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति ८) आर्यष्य कर्म की ३३ सागरोपम उत्कृष्ट बंधस्थिति
उपरोक्त आठों कर्मों की उत्कृष्टतम बंधस्थितियाँ दर्शाई गई हैं। किसी भी कर्म की उतनी बड़ी लम्बी उत्कृष्ट प्रकार की बंधस्थितियाँ कैसे बंधती हैं ? आखिर तो जीव किसी न किसी प्रकार की आश्रवस्वरूप अशुभ पाप की प्रवृत्तियाँ करता है तभी जाकर कर्म की भारी प्रकृतियों का बंध होता है । इनमें ऐसी कैसी पाप की प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनके कारण इतनी भारी और इतनी लम्बी उत्कृष्ट बंध-स्थितियाँ बंधती है ? वह कौन है ? कैसा है ? मोहनीय कर्म में चढते क्रम से तीव्रता लानेवाली एक से एक ज्यादा भारी तीव्र कर्म प्रकृतियाँ हैं। नोकषाय मोहनीय में ज्यादा तीव्रता नहीं है क्योंकि ये सहायक कषाय हैं । मूल कषाय तो क्रोध-मान-माया-लोभ हैं । इनकी सहायता करनेवाले इनको भडकाने में जगाने में ज्यादा सहायता करनेवाले हास्यादिसहायक६ +३ = नौं नोकषाय हैं। अतःस्वाभाविक ही है कि इन नोकषायों से जितनी बंधस्थिति बंधेगी उससे तो हजार गुनी ज्यादा लम्बी स्थिति मूल क्रोधादि कषायों की ही होगी।
१. आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः॥८-१५ । २. सप्ततिमोहनीयस्य ॥८-१६॥ ३. नामगोत्रयोविंशति ॥८-१७॥ ४. त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥८-१८ ॥
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आध्यात्मिक विकास यात्रा