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करणाकम
कर्म
मिथ्यात्व के कारण उत्कृष्ट बंधस्थिति
जैन दर्शन में अद्भूत अनोखा कर्मविज्ञान दर्शाया
है। कर्मशास्त्र इसे समझने मोहनीय
के लिए मूलभूत खजाना है । जगत के किसी भी धर्म या दर्शन ने नहीं बताया ऐसा अद्भुत “कर्मविज्ञान"
जैन धर्म ने बताया है। यह 'सर्वज्ञों की अनमोल देन है।
कर्मशास्त्र में ८ प्रकार के कर्म बताए हैं । उस आठ प्रकार के कर्मों में चित्र में दर्शाए अनुसार... सबके केन्द्र में मोहनीय कर्म रहता है। यही कारक कर्म में सब प्रकार की पापादि की प्रवृत्ति मन-वचन-काया से यही मोहनीय कर्म कराता है। इसलिए शेष ७ कर्मों के बंधन के लिए आश्रव रूप में भी मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति ही कारणभूत बनती है । अर्थात् मोहनीय कर्म की विविध प्रवृत्तियाँ करके अन्य सभी सातों कर्म बांधे जाते हैं। अतः सातों कर्मों के केन्द्र में एक मात्र मोहनीय कर्म है । अतः सातों कर्मों का आधारभूत यह मोहनीय कर्म है। यही सब कर्मों की जड है। बीज कारण है। यदि एक मोहनीय कर्म न हो तो शेष कर्मों को कहीं से पोषण नहीं मिल पाएगा। परिणामस्वरूप सभी शाखाएं सूख जाएगी।
४ प्रकार के बंधों में स्थितिबंध भी एक बंध है। जिसमें बंधे हुए कर्म की काल अवधि निर्धारित होती है। आठों कर्मों की
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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