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________________ सदा ही ज्यादा रही है । भूतकाल में तथा वर्तमान में भी मिथ्यात्वी जीवों की संख्या बहुमती के रूप में ९९% रही है । आज वर्तमान में भी यही स्थिति स्पष्ट दिखाई दे रही है । और भविष्य में भी प्रमाण में सम्यक्त्वियों की तुलना में मिथ्यात्वी जीवों की संख्या काफी ज्यादा ही रहेगी। कभी भी कदापि सम्यक्त्वी जीवों की संख्या मिथ्यात्वियों से ज्यादा हुई भी नहीं है और कभी होगी भी नहीं। इसलिए संसार मिथ्यात्वियों की प्रचुरता का है। अधिकता का है। अब आप सोच लीजिए । क्या करना है ? क्या मिथ्यात्वी ही रहना है ? मिथ्यात्वियों की ही संगत में उनके जैसा ही बना रहना है ? जी नहीं... कभी भी ऐसा मत सोचिए। भले ही यह संसार मिथ्यात्वियों का हो । मिथ्यात्वी के लिए संसार है और संसार के लिए मिथ्यात्वी हैं । ये दोनों एक दूसरे के लिए हैं और एक दूसरे के कारण हैं । सम्यक्त्वी का तो कभी भी संसार में मन लगता ही नहीं है । उसका लक्ष्य मोक्ष की तरफ है अतः वह सदा मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में कैसे आगे बढूँ? बस रात-दिन इसी के बारे में सोचता रहता है । प्रयत्नशील भी रहता है । मिथ्यात्वियों का बनाया हुआ पापों की भरमार का यह संसार... अरे.... रे ! ऐसा नरकागार दुःखमय पापों से भरपूर यह संसार कभी भी किसी भी परिस्थिति में सम्यक्त्वी जीव को रुचिकर लग ही नहीं सकता है । वह प्रतिक्षण चिन्तित है इस संसार से... बस, छूटना ही चाहता है। इसलिए आप सारी दुनिया का विचार करने की अपेक्षा सबसे पहले अपना विचार करो कि मैं इस संसार से कैसे छूढूँ? मैं इस मिथ्यात्व के बंधन में से छुटकारा कैसे पाऊँ ? सारी दुनिया के सभी जीवों को सम्यक्त्वी बनाना चाहते हैं, उनका कल्याण करना चाहते हैं... तो सबसे पहले आपको स्वयं को मिथ्यात्व के विषचक्र में से बाहर निकलना ही पडेगा । इस वमल में से आप बाहर निकलोगे तभी ये विचार भी आएंगे । वरना मिथ्यात्व के घर में बैठे-बैठे जगत के सर्व जीवों के कल्याण के विचार भी आने संभव नहीं है। इसलिए मिथ्यात्व का स्वरूप अच्छी तरह पहचान लीजिए. इसे खूब अच्छी तरह समझ भी लीजिए... इस मिथ्यात्व से कितना भारी नुकसान होता है ? आत्मा का अधःपतन भी कितना भारी होता है ? यह सब आप अच्छी तरह समझ लीजिए....फिर इसकी भयंकरता जानकर इसकी चुंगल में से बच निकलने के लिए अपूर्व पुरुषार्थ करिए। ४५६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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