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और काया से, तथा करने-कराने और अनुमोदनादिपूर्वक प्रतिदिन होती ही जाती हैं । वैसे एक जीव १८ पाप स्वयं करता है और यदि वह दूसरों के पास कराता भी है या फिर वह दूसरों के द्वारा कृत १८ पापों की अनुमोदना भी यदि करता है, तो निश्चित रूप से १८ पाप तीनों रूप से होते हैं । १८ x ३ =
५४ भेद होंगे । इन सब को यदि मन, वचन और काया तीनों के द्वारा भी किये जाते हैं । अतः उनके साथ भी गुणाकार किया जाय तो ५४ x ३ = १६२ भंग होते हैं । इसी तरह ये सभी भंगपूर्वक के सभी पाप तीनों काल में होते हैं । भूतकाल में भी हम ये सब पाप करके आए हैं, वर्तमान में कर रहे हैं, तथा भविष्य में भी करते रहेंगे, क्योंकि अभी भी भविष्य में न करने के पच्चक्खाण नहीं किये हैं, अतः होते ही जाएंगे। इस तरह १६२ x ३ काल से गुणाकार करने पर = . ४८६ भंग होते हैं।
___ इस तरह और भी भंग संख्या आगे बढ़ती ही जाएगी । इन्सान कितने पापकर्म स्वयं करता रहता है? कितना भार सिर पर बढ़ता जाता है इसका कोई हिसाब ही नहीं है। लेकिन इन सब पापों की मूल जड देखी जाय तो कहाँ है ? एक मात्र मोहनीय कर्म ही सबका मूलभूत कारण है । भूतकाल में उपार्जित मोहनीय कर्म के उदय में आने से उनके आधार पर वर्तमान में इन १८ ही पाप की प्रवृत्तियाँ होती हैं। तथा आज होती इन सभी प्रकार की पाप की प्रवृत्तियों से पहले मोहनीय कर्म बंधता है । तथा साथ ही ज्ञानावरणीयादि शेष सभी कर्म बंधेगे।
जी हाँ, प्रवृत्ति तो मोहनीय कर्म के उदय की ही है, लेकिन वेदनीय आदि सभी कर्म उसमें से बंधते हैं। जैसे कि श्रीकान्त राजा ने साधु महात्मा को द्वेष भाव से, मिथ्यात्व की अश्रद्धा की वृत्ति से कोढीया–कोढीया चिल्लाकर मारा-पीटा। इस पाप से उसने
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. आध्यात्मिक विकास यात्रा