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________________ वेदनीय कर्म बांधा । जिसका उदय दूसरे श्रीपाल के जन्म में हुआ और अशाता वेदनीय कर्म उदय में आया तथा श्रीपाल राजा बनने के बावजूद भी कोढ रोग से ग्रस्त हुआ। उस रोग से काफी परेशान रहना पडा । ठीक है कि धर्म के प्रभाव से पुनः उस कर्म की निर्जरा होती गई । कर्मक्षय होते ही पुनः सुंदर अवस्था प्राप्त हो सकी। ____ इसी तरह मोहनीय कर्म के घर की, मूल कषाय मोहनीय कर्म की क्रोधादि की प्रवृत्ति और उसी के पाप आदि के कारण जीव गोत्र कर्म भी बांधता है । जैसे क्रोधादि के कारण जैसी तैसी गाली प्रदान करना, अपशब्द बोलना, मान-अभिमान द्वारा कुछ भी बोलकर बड़ों आदि का अनादर-अपमान करने के द्वारा जीव नीच गोत्र कर्म बांधता है । हरिकेशी, मेतारज मुनि आदि इसके प्रत्यक्ष दृष्टान्त हैं । तथा भगवान महावीर के जीव ने तीसरे मरीचि के भव में थोडा सा कुल का मद किया और उससे नीचगोत्र कर्म उपार्जन हुआ। परिणामस्वरूप भ. महावीर की आत्मा को कितने जन्मों तक याचक कुल में जाना पड़ा। आखिर उपार्जित कर्मों की सजा तो भुगतनी ही पडी । अनेक प्रकार की मान-अभिमान, परनिंदा-कलह आदि के अनेक पापों अपमानादि के कारण, निश्चित रूप से जीव नीच गोत्र कर्म का उपार्जन करता है । इसी तरह स्वाभिमान से स्वप्रशंसाऔर परनिंदा करनेवाला भी पहले नीचगोत्र कर्म बांधता है। आप स्पष्ट देखिये कि ये सभी कलह-अभिमान परनिंदा प्रशंसा-अपमान-अनादर-अपशब्द प्रयोगादि सभी मोहनीय कर्म की कषाय-नोकषायादि की ही प्रकृतियाँ हैं और इन प्रकृतियों की ही ये १८ पापस्थानकों की प्रवृत्तियाँ हैं । अतः इन पाप की प्रवृत्तियों से पुनः मोहनीय कर्म का ही बंध होता है। इसी तरह तीव्र क्रोधादि कषायों के कारण नामकर्म के अन्तर्गत गतिनाम कर्म भी बंधता है । जिससे क्रोधादि से नरक गति में जाना पडता है । लोभ से देवगति में, माया के कारण तिर्यंच की पशु-पक्षी की गति में जाकर जन्म धारण करने पड़ते हैं। और मान की न्यूनता मनुष्य गति में ले जाती है । इस तरह प्रवृत्ति १८ पापस्थानक में से क्रोधादि कषाय की जो कषाय मोहनीय कर्म के उदय के कारण है, और कर्म गति नामकर्म का बंधता है। _ इसी तरह आयुष्य कर्म भी है । यद्यपि आयुष्य का मुख्य कार्य जीव को उस उस गति में सिर्फ एक शरीर में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त एक ही शरीर में नियत काल तक रखना । रहने में इतने वर्षों का काल-अवकाश देना। लेकिन यह आयुष्य भी गतिनाम कर्म के साथ सीधा संबंध रखता है । प्रथम गति नामकर्म बंधता है तब जाकर आयुष्यकर्म साथ में जुडता है। अन्यथा बिना गति के जीव कहाँ जाकर जन्म धारण करेगा कुछ भी निश्चित नहीं रहेगा। अतः गतिनामकर्म पहले ४ में से किसी १ गति का चयन कर ले, अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९२३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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