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इनका मुख्य ४ विभाग में वर्गीकरण किया जाता है- १)दर्शन मोहनीय-मिथ्यात्व मोहनीय, २) क्रोध, मान, माया तथा लोभादि के ४ कषायों के अनन्तानुबंधी आदि १६ मूल कषाय, ३) हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा ये ६ नोकषाय हैं, अर्थात् मूल कषाय के सहायक कषाय हैं, और ४) वेद मोहनीय, जिसमें विजातीय आकर्षण होता है । स्त्री को पुरुष का, पुरुष को स्त्री का, तथा नपुंसक को उभय का । यह विषयवासना—कामसंज्ञा का जनक-कारक है।
इस तरह यदि समस्त संसार की समस्त प्रवृत्तियों को मात्र एक मोहनीय कर्म में समाविष्ट करना हो तो संक्षेप से मात्र ४ शब्दों में कह सकते हैं। १. विकृत-विपरीत ज्ञान-मिथ्यात्व, २. क्रोधादि कषाय, ३. हँसी-मजाकादि, तथा ४. कामक्रीडा । बस, आप ही अच्छी तरह सारे संसार में गौर से देखेंगे तो आपको ये ४ प्रवृत्तियाँ, इनकी ही प्रवृत्ति समस्त जीवों में प्रधान रूप से स्पष्ट दिखाई देगी । सारा संसार इसी से भरा पडा है । संसार के समस्त जीवों में इनकी ही प्रवृत्तियाँ मुख्यतया हैं। . .. अब इन मोहनीय की ४ प्रकृतियों से जीव मोहनीय कर्म के माध्यम से सभी कर्म उपार्जन करता है। प्रवृत्ति भले ही मोहनीय कर्म की हो लेकिन उससे भी वेदनीय-अंतरायादि सभी कर्मों का बंध होता है । जैसे आइस्क्रीम-कुल्फी बनानेवाले मटके या बक्से में खाने-विभाग काफी हैं परन्तु अन्दर दूध पानी आदि डालने के लिए मुख तो एक ही है । एक ही मुँह से अन्दर प्रविष्ट होकर फिर विविध खानों में विभक्त हो जाता है । ठीक उसी तरह मोहनीय कर्म के इन चारों विभागों की मुख्य प्रवृत्तियों से उपार्जित कर्म मोहनीय कर्म के मुख से प्रविष्ट होकर आठों कर्मों के रूप में विभक्त हो जाता है। मोहनीय कर्म के द्वार से प्रविष्ट होकर फिर ज्ञानावरणीय–वेदनीय-गोत्रादि कर्मों के रूप में विभक्त होकर वर्गीकरण होता है । अतः सभी आठों कर्मों के बंध के आश्रवका आधार मोहनीय कर्म की समस्त प्रवृत्तियों पर है । और आश्रव १८ पाप की प्रवृत्तियों पर है। १८ पाप की प्रवृत्तियों से ८ कर्म• पहले प्राणातिपात अर्थात्-हिंसा इत्यादि १८ पापों को आप सभी अच्छी तरह पहचानते ही हैं । जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में रोज होते ही हैं, लोग करते ही हैं, और रोज के प्रतिक्रमण में हम दोनों समय बोलते ही हैं । पाँचो प्रकार के प्रतिक्रमण में इन पापों की क्षमायाचना की जाती है । इन हिंसादि १८ पापों की जो दैनिक जीवन में मन से, वचन से,
अप्रपत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना"