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भवरोगार्तजन्तूनामगदंकारदर्शन । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥
भव अर्थात् संसाररूप रोग, अर्थात् भव-संसार में चारों गति में ८४ लक्ष जीव योनियों में कर्मानुसार जाना, जन्म-मरण लेते हुए भटकना, यह भवभ्रमण का भयंकर रोग जो आत्मा को कर्म के कारण लागू हुआ है, ऐसे रोगी के लिए वैद्य - चिकित्सक का आगमन, मिलना, (दर्शन) भी जितना लाभदायी है, उसी तरह श्रेयांसनाथ भगवान के दर्शन भी लाभकारी हैं । कैसे श्रेयांसनाथ भगवान ? निःश्रेयस अर्थात् मोक्षरूपी लक्ष्मी -शोभा में रमण करनेवाले श्री श्रेयांसनाथ भगवान के दर्शन से भव-संसार रोग से पीडित को काफी ज्यादा लाभ होता है । क्योंकि वैद्य-हकीम देह रोग के चिकित्सक हैं जबकि परमात्मा - देवाधिदेव एवं गुरुमहाराज ये आत्मा पर लगे कर्मरोग के चिकित्सक हैं । . सचमुच इसके लिये ये ही समर्थ एवं सक्षम हैं। इन से ही हमारा भवरोग मिटना संभव है ।
इस तरह एक मात्र मोहनीय कर्म कार्य रूप में भी है और कारण रूप भी है। जब यही मोहनीय कर्म उदय में रहकर १८ पापों की प्रवृत्ति कराता है तब यह कारणरूप बन जाता है और जब उन १८ पापों से कर्म का बंध होता है तब पाप कारणरूप होते हैं और कर्म कार्यरूप बन जाता है । इस तरह जन्य - जनक दोनों अवस्था में रहनेवाला यह मोहनीय कर्म स्वयं अन्य सभी कर्मों को बंधाने में भी कारणरूप बनता है ।
मोहनी की प्रवृत्ति से सभी कर्मों का बंध
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आप जानते ही हैं कि ८ प्रकार के कर्म कर्मशास्त्र में वर्णित हैं । लेकिन कर्मशास्त्र यह भी स्पष्ट रूप से बता रहा है कि आठों कर्मों का मुख्य राजा ही मोहनीय कर्म है । जन्य-जनक भाव से भी और कार्य-कारणभाव से भी मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों की प्रवृत्ति अन्य सभी कर्मों को बंधाने में कारणरूप है। इसलिए बाहरी संसार के व्यवहार में भी आप देखेंगे कि मोहनीय कर्म की जो २८ प्रकृतियाँ हैं इन्ही के आधार पर.... . अनुरूप समस्त प्रवृत्तियाँ हैं ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा